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गई थीं। किन्तु सन् ४२ में इसका प्रकाशन रुक गया और अब तक जब कि यह ग्रन्थ प्रेसम दिया गया, जयधवलाके सानुवाद दो भाग प्रगट हो चुके थे और तीसरा-चौथा भाग प्रेसमे था, अतएव यह उचित समझा गया कि प्रारम्भको टिप्पणियाँ न दी जावे । तदनुसार सक्रम-अधिकारसे टिप्पणियां देना प्रारम्भ किया गया । परन्तु जब ग्रन्थका कलेवर बढ़ता हुआ दिखा, तब बा० छोटेलालजीके लिखनेसे आगे टिप्पणियां देना बन्द कर दिया गया।
कसायपाहुडके अनुवादका प्रारम्भ सन् ४१ मे किया और उसकी समाप्ति सन् ५३ मे हुई। इस १२ वर्षके लम्बे समयमे मुझे अनेक विकट परिस्थितियोंसे गुजरना पड़ा, शारीरिक, मानसिक आधि-व्याधियोंके अतिरिक्त को टुम्बिक विडम्बनाओ, आथिक सकटो एव ३ष्ट-वियोग
और अनिष्ट सयोगोंका भी सामना करना पडा, अतएव अनुवादम आदिसे अत तक एक रूपताको मैं कायम न रख सका । प्रतियोके सर्वत्र सुलभ न रहने और मानसिक शान्तिके दुर्लभ रहनेसे अनुवादको प्रारम्भसे अन्ततक दुवारा सशोधन भी न कर सका । जव प्रथ प्रेसम दे दिया गया, नब स्थितिविभक्तिवाले अशकी जयधवलाकी प्रति प्रयत्न करने पर भी कहींसे नहीं मिल सकी। इसलिए इस स्थलका सम्पादन बिलकुल अधेरेमें हुआ । यही कारण है कि इस अशम अशुद्धियां कुछ अधिक रह गई और एक सूत्र भी मुद्रित होनेसे रह गया,जिनकी ओर मेरा ध्यान मेरे सहाध्यायी ज्येष्ठबन्धु श्रीमान् प०फूल चन्दजी सिद्धान्तशास्त्रीने खींचा। संक्रम प्रकरणके प्रायः सभी विशेषार्थ उन्हींके सहयोगसे लिखे गये। तथा इससे आगेके समस्त चूर्णिसूत्रोंके निर्णयम उनका भरपूर सहयोग रहा, इसके लिए मैं उनका अत्यधिक आभारी हूँ।।
श्रद्धेय, वयोवृद्ध, ब्र० श्रीमान् प० जुगलकिशोरजी मुख्तार सा० का मैं आदिसे अन्त तक अाभारी हूं। उन्होंने ही मुझे इस कार्यके लिए प्रेरित किया और उनके ही सौजन्यसे यह प्रथ निर्विघ्नतासे प्रकाशित हो सका है।
श्रीमान् बा० छोटेलालजी सा० कलकत्ताका आभार मै किन शब्दों में व्यक्त करूँ ? जिन्होंने कि इस ग्रन्थके प्रेसमें दिये जाने के पश्चात् प्रकाशित न करने के लिए उठाये गये विरोधके बावजूद भी प्रकाशन बन्द नहीं किया। यह उनकी दृढ़ता और दूरदर्शिताका ही फल है कि ग्रन्थ अपने वर्तमानरूपमें पाठकोंके सामने उपस्थित है । जन्म-जात श्रीमान होते हुए भी आप श्रीमत्ताके अहंकारसे कोशों दूर हैं । स्वभावके अत्यन्त सरल, निरभिमानी और विचारक हैं। दि. सम्प्रदायके पुरातन साहित्यके प्रकाशमें लानेकी आपकी प्रवल अभिलापा है। आप वीरसेवामन्दिर के अध्यक्ष और वीरशासन सबके मन्त्री हैं। घरू कारोवारको छोड़कर श्राप आजकल उक्त दोनो सस्थाओंके ही अभ्युत्थानके लिए स्वास्थ्यकी भी चिन्ता न करके अनिश सलग्न हैं । आपक द्वारा पू० मुख्तार सा० के सहयोगसे जैन-साहित्य के अनेक अलभ्य और अनुपम ग्रन्थोंके प्रकाशम आनेकी बहुत कुछ आशा है। आप दोनों स्वस्थ रहते हुए दीर्घायु हाँ, ऐसी मङ्गल कामना है।
परिशिष्टान्त मूलग्रन्थ वनारसकं ज्ञानमण्डल यन्त्रालयमे मुद्रित हुआ और प्रकाशकीय बक्तव्यसे लेकर शुद्धिपत्र तकका अश सन्मतिप्रेस किनारी बाजार, दिल्लीमे छपा । मुद्रणकालने दोनों ही प्रेसके सुचालक और व्यवस्थापक महोदयोका बहुत ही सौजन्यपूर्ण व्यवहार रहा हैअतएव मैं आप लोगोंका आभारी हूँ।
प्रस्तुत ग्रन्थ अगाध और दुर्गम है, इसलिए पर्याप्त सावधानी रखनेपर भी जहा कहीं जो कुछ मूल या अर्थमें भूल रह गई हो, उसे विशेष ज्ञानी जन संशोधन करके क्योकि पढ़ें, 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे की उक्ति के अनुसार चूक होना बहुत सम्भव है। द्वि० भाद्रपद शुक्ला २ म० २०१२)
जिनवाणी-मुधारस-पिपासु१८-६-५५
होरालाल