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XIV प्रति वाहिर आई हैं, प्रथम तो उसका मिलना ही कठिन है और यदि मिल भी जाय, तो उसके ऊपर पूर्ण शुद्ध होनेका विश्वास नहीं किया जा सकता है। अतएव उसका ताडपत्रीय प्रतिसे मिलान करानेकी सुविधा यदि आप देवें, या मेरे मूडबिद्री जाकर मिलान करनेका भार ज्ञानपीठ वहन करे, तो मैं आपके प्रस्तावको स्वीकार कर सकता हूँ। उन्होंने मूडबिद्री जाने-आनेके भारको उठानेसे इनकार करते हुए कहा कि आप उस भारको स्वयं वहन कीजिए और सम्पादनपारिश्रमिकम जाड़कर उसे वसूल कर लीजिए । अन्तम पारिश्रमिकका एक अनुमानिक विवरण लिखकर उन्हे दे दिया गया। उन्होंने कहा कि मै कमेटीसे विचार-विनिमय करके लिखूगा । करीब ६ मासके पश्चात् गोयलीयजीका पत्र आया कि यदि आप स्वयम्भू कविके अपभ्र शरामायणके अनुवादका कार्य कर सकें, तो ज्ञानपीठ वह काम आपसे करानेके लिए तैयार है। मैंने उनके इस पत्रका उत्तर दिया कि लगभग एक वर्षसे जिस महाबन्धका सम्पादन मुझसे कराने की चर्चा चल रही थी, उसका तो आपने कोई उत्तर नहीं दिया, फिर यह नया प्रस्ताव कैसा । उत्तर आया कि आपके पारिश्रमिककी मांग कुछ अधिक थी, अतः उसका सम्पादन तो पं० फूल चन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीको सौंप दिया गया है। चूं कि आप घर पर इस समय अवकाशमे है, इसलिए उक्त प्रस्ताव आपके सामने रखा गया है, आप इसे स्वीकार कर उसके एक अंशका अनुवाद डा० हीरालालजीके पास स्वीकृतिके लिए नागपुर भेज दीजिये। मैंने उनके इस पत्रका कोई उत्तर नहीं दिया और अपने अतीत जीवनपर विहगावलोकन करने लगा--कि कहॉ तो एक वार मेरे स्वप्न साक्षात् हो रहे थे, और कहां अब हाथमें आए हुए ये सिद्धान्तग्रन्थ क्रम-क्रमसे मेरे हाथसे निकलते जा रहे हैं ?
___ इस बीच सन् ५२ के भादोंमे अकस्मात् मेरे पञ्चीस वर्षीय विवाहित ज्येष्ठ पुत्रका देहान्त हो गया। यह मेरे लिए वज्रप्रहार था, इससे मै इतना अधिक आहत हुआ कि पूरे दो वर्ष तक घरसे बाहिर नहीं जासका और अपने चित्तको सम्भालने के लिए कुछ ग्रन्थोंका अनुवादादि करता रहा । जिसके फल-स्वरूप वसुनन्दिश्रावकाचार और जिनसहस्रनाम ये दो ग्रन्थ तैयार किये, जो बाद में ज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशित हुए।
पटखडागममूलसूत्रों और कसायपाहडचूर्णिसूत्रोंके आद्योपान्त अनुवाद मेरे पास तैयार थे ही, अत. जनवरी सन् १९५४ में जिनसहस्रनाम के प्रकाशित होते ही उक्त दोनो ग्रन्थोंको भी प्रकाशित करनके लिए गोयलीयजीसे कहा । उन्होंने उत्तर दिया--हमारे यहांकी व्यवस्था आपको ज्ञात है । आप नागपुर चले जाइए और प्राकृत विभागके प्रधान सम्पादक डा० हीरालालजीसे स्वीकृति ले आइए, हम तुरन्त ही दोनों ग्रन्थोंको ज्ञानपीठसे प्रकाशित कर देंगे । मै फरवरी सन ५४ में उक्त दोनों ग्रन्थोको भारतीयज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशनार्थ स्वीकृति लेनेके लिए डॉ० हीरालालजीके पास नागपुर गया और उनके यहा ही तीन दिन ठहरा । अनुवाद और मूलका प्रेसकापी आदि सब कुछ उन्हे दिखाया और भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशनार्थ स्वीकृति देनेके लिए निवेदन किया । पर डॉ॰होरालाल जीने यह कहकर स्वीकृति देने से इनकार कर दिया कि यदि ये दोनो मूलग्रन्थ छप जावेंगे,तो धवला-जयधवलाका प्रकारान रुक जावेगा क्योंकि फिर इन टीका ग्रन्थोंको कौन खरीदेगा? मुझे उनकी यह दलील समझमे नहीं आई कि मूल-ग्रन्थक प्रकाशमं श्रानेसे टीकाओंका प्रकाशन क्यो रुक जावेगा ? अन्त में हताश होकर देश लौट आया । हा, चलते समय डा० सा० ने यह अवश्य कहा, कि यदि धवनाके परे भाग प्रकाशित होने तक श्राप रुके रहेगे, तो आपके पटखडागमके मृल और अनुवादको हम प्रकाशित कर देगे।
गतवर्ष मार्च सन् ५४ में मैं वीरमंबामन्दिर बुला लिया गया और उसके नूतन भवनके शिलान्यासके अवसरपर श्रीमान बा० छोट लालजी जैन क्लकत्तासे दिल्ली पचारे और वीरसंवामन्दिरमे ही ठहरे । करीब एक मास साथमे रात-दिन उठना-बैठना हुआ और मैंने उनकी