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XII
आफिस से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया। कुछ दिनोके बाद ता० १८-५-४२ का लिखा एक लम्बा पत्र श्री० मुख्तार सा० का आया, जिसमें सम्पादक-पक्षमे बहुत सी दलीलें देकर यह दिखानेका यत्न किया गया था , कि मुझे सम्पादक न माननेका क्या कारण है ? xxx मालूम होता है कि आप किसी लोभ-मोहादिके प्रलोभनमें फंस गये हैं, अतः यह बखेड़ा उठाया है, आदि । अन्तमे आपने लिखा था कि मूडबिद्री जाने आनेमे आपने संस्थाकी एक
रकम खर्च कराई और अब यह अडगा लगा रहे हैं, आदि । मैने सम्पादक-सम्बन्धी बातोंके बारे में तो यह लिख दिया कि पहले आप मेरे उस लेख को अनेकान्तमे प्रकाशित कीजिये पीछे जो भी आप उसपर सम्पादकीय टिप्पणीमे लिखना चाहे-लिखिए। साथ ही यह भी लिख दिया कि यदि आप उस लेखको प्रकाशित नहीं करना चाहते हों, तो मुझे तुरन्त बैरग वापिस कर देवें, जिससे कि मै अन्य पत्रोंमे प्रकाशित करा सकूँ । और जब तक मुझे मेरे लेखका समुचित समाधान नहीं मिल जाता, तब तक मै आपको या किसीको सम्पादक मानने के लिये तैयार नहीं हूँ। भले ही मेरा यह ग्रन्थ अप्रकाशित पड़ा रहे ? रह गई मूडविद्री जाने-आने में खर्च हुए रुपयों की बात, सो ग्रन्थका जितना अश आपके पास पहुंच चुका है उसकी उतने रुपयोकी वी० पी० करके अपना रुपया मेरे से वसूल कर लीजिये और मेरी प्रेसकापी मुझे वापिस कर दीजिए । अन्तमें ८०) रुपये उन्हे भेज दिये गये और मैने अपनी प्रेसकापी अपने पास वापिस मंगा ली।
___ इसी बीच मथुरा संघसे जयधवलाके प्रकाशनकी योजना बनी और मैंने जयधवलाकी पूरी प्रेसकापी उन्हें दे दी। इस प्रकार मेरा धवला और जयधवलासे तो सम्बन्ध-विच्छेद हुआ ही, श्रीमुख्तार सा०से भी कसायपाहुडके प्रकाशन-सम्बन्धी सब बाते समाप्त हो गई और मै अमरावती छोड़ कर वापिस उज्जैन आ गया । अप्रासगिक होते हुए भी यहां इतना लिखना अनुचित न होगा कि अमरावतीमें ही रहकर सिद्धान्त-प्रथोंके अनुवादादि करनेके विचारसे मैने अमरावतीमें एक मकान भी खरीद लिया था और अपने पठन-पाठनकी सुविधाके अनुकूल वनवा भी लिया था। मगर जब सिद्धान्त-ग्रंथोके अनुवाद और सम्पादुनादिसे एक प्रकारसे सर्वया सम्बन्ध-विच्छेद-सा हो गया, तो दिलको बडी चोट लगी और उज्जैन आनेके एक वर्ष बाद अमरावती जाकर वहांका मकान भी बेच आया । इस प्रकार मध्यलोकके मध्यभारतकी मध्यभूमि उज्जैनसे मैं सकुटुम्ब सदेह अमरावती (स्वर्ग) भी पहुँच गया, और पूरे ५ वर्षे वहा रह कर अन्त में अपने सर्व कुटुम्बके साथ पुन सदेह हो वापिस मध्यलोकमे आगया।
उक्त घटनाओंका मन पर जो असर हुआ, वह प्रयत्न करने पर भी लम्बे समय तक दूर नहीं हो सका और सन् ४४ मे पुन' उज्जैन आने के बादसे ही बरावर इस अवसरकी प्रतीक्षा करता रहा कि चित्त कुछ शान्त हो और मै मूल पखण्डागम और कसायपाहुडके चूणिसूत्राकार अनुवाद पूरा कर सकं । चूर्णिसूत्रोंके ऊपर जयधवलाके आधारसे मैंने विस्तृत टिप्पणियाँ ले रखी थीं, अतएव जब कभी समय मिलता और चित्त शान्त होता, मै अनुवाद करता रहा । पर इस दिशामे कुछ प्रगतिशील कार्य नहीं हो सका । अबकी बार उज्जैन आने पर नौकरी करनेमें चित्त नहीं लगा और हर समय ऐसा प्रतीत हो कि यहा रहकर तू अपने जीवनके इन कीमती क्षणोको व्यर्थ खो रहा है ? फलस्वरूप मैंने सन् ४६ के अन्तमें उज्जैनकी नौकरी छोड़ दी।
भा०व० दि० जैन सबके उस समय के प्रधानमत्री पं० राजेन्द्रकुमारजीको जैसे ही मेरे उज्जैनकी नौकरी छोड़नेकी बात ज्ञात हुई उन्होंने मेरे द्वारा तैयार किये हुए चूर्णिसूत्रादिको प्रकाशित करनेका वचन देकर मुझे मथुग बुला लिया और सरस्वती-भवनकी व्यवस्था मुझे सौंप दी। या रहते हुए मैंने छहढाला, द्रव्यसंग्रह और रत्नकरण्डश्रावकाचारके स्वाध्यायोपयोगी नये