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इसी बीच सन ४० में मै सहारनपुर जैनयुवक समाजकी ओरसे पर्युषण पर्वमै शास्त्रप्रवचनके लिए आमंत्रित किया गया। वहांसे श्रीमुख्तार सा० से मिलने के लिये सरसावा भी गया और उस वर्ष घटित हुई घटनाओं को सुनाया । जयधवलाके प्रेसकापी कर लेने की बात सुनकर श्री मुख्तार सान्ने अपनी इच्छा व्यक्त की कि यदि आप जयधवलामेसे कसायपाहुड मूल और उसकी चूर्णिका उद्धार करके और अनुवाद करके हमें दे सकें, तो हम वीर सेवामन्दिरकी ओरसे उसे प्रकाशित कर देगे । मैने उनको इसकी स्वीकृति दे दी। अनुवाद, टिप्पणी आदिके विषयमें विचार-विनियम भी हुआ और एक रूप-रेखा लिखकर मुझे दे दी गई कि इस रूपमें कार्य होना चाहिए । मैं उस रूप-रेखा को लेकर वापिस अमरावती आगया। दिनमें धवला-आफिस जाकर धवलाके अनुवाद और सम्पादनका कार्य करता और रातमें घर पर कसायपाहुडके चूर्णिसूत्रोंका संकलन करता । चूर्णिसूत्रोंके संकलन करते हुए यह अनुभव हुआ कि उनका ६० हजार प्रमाणवाली विशाल जयधवला टीकामेंसे छांटकर निकालना सागरमे गोता लगाकर मोती बटोरने जैसा कठिन कार्य है। यद्यपि सन् ४१ के भाद्रपद शुक्ला १३ का मैने चूर्णिसूत्रोंका सकलन पूरा कर लिया, तथापि सैंकड़ों स्थान सदिग्ध रहे कि वे चूर्णिसूत्र हैं, या कि नहीं ? मैने इसकी सूचना श्री० मुख्तार सा० को दी, उन्होने मुझे सरसावा बुलाया। मैंने वहां जाकर चूर्णिसूत्रोंकी कापी दिखाई और साथमें सदिग्ध स्थल । अन्तमें यह तय हुआ कि मूडबिद्री जाकर ताडपत्रीय प्रतिसे चूर्णिसूत्रों का मिलान कर लिया जाय और वहां जाने-आनेके व्ययका भार वीरसेवा-मन्दिर वहन करे । सन् ४२ की फरवरीमें मैं अमरावतीसे मूडबिद्री गया और वहां १५ दिन ठहरकर स्व. श्री० पल्लोकनाथजी शास्त्री और नागराजजी शास्त्रीके साथ "बैठकर ताडपत्रीय प्रतिसे चूर्णिसूत्रोंका मिलान करके वापिस आगया और घरपरे धवलाके प्रूफ-रीडिंग आदिसे जो समय बचता, उसमें चूर्णिसूत्रोंका अनुवाद करने लगा । जब कुछ अंशका अनुवाद तैयार हो गया, तो मैने उसे श्री मुख्तार साल के पास भेज दिया। साथ ही उनके द्वारा बतलाये गये टाइपों में एक नमूना-पत्र भी मुद्रित कराया और उसे देखने के लिये उनके पास भेज दिया । जब ग्रन्थको प्रेसमे देनेकी बात श्री० मुख्तार सा० ने पत्र में लिखी, तो मैने उनसे यह पूछना उचित समझा कि ग्रन्थके ऊपर मेरा नाम किस रूपमें रहेगा। उनका उत्तर पाया कि ग्रन्थके ऊपर तो 'सम्पादक' के रूप में मेरा नाम रहेगा। हां, भीतर अनुवादादि जो कार्य आप करेंगे उस रूपमें आपका नाम रहेगा । मुझे तो इस ‘सम्पादक' नामसे पहले से ही चिढ़ थी, कि आखिर यह क्या बला है ? तब मैने 'सम्पादक और प्रकाशक' शीर्षक एक छोटा सा लेख लिख करके अनेकान्तमें प्रकाशनार्थ' श्री मुख्तार सा० को भेजा । उन्होंने न तो उसे अनेकान्तमें प्रकाशित ही किया, न मुझे कोई उत्तर दिया । प्रत्युत प्रो० हीरालालजी को एक बन्द पत्र लिखकर उस लेखकी सूचना उन्हे दी और लिखा कि ऐसा ज्ञात होता है कि आपका और उनका कोई मत-भेद सम्पादकके नामको लेकर हो गया है। और न जाने क्या-क्या लिखा ? भाग्यकी बात है कि जिस समय यह पत्र आया उस समय मै और प्रो० सा० आमने-सामने बैठे हुए प्रति-मिलान कर रहे थे । श्री मुख्तार सा०के अक्षर पहिचान करके उन्होंने उसे तत्काल खोल कर पढ़ना प्रारम्भ किया और ज्यो ज्यों वे उसे पढ़ते गये, उनके बदले हुए भावोंकी छाया मुखपर अंकित होती गई। मै यह सब पूरे ध्यान सेदेख रहा था। पत्र पढ़ चुकने पर उन्होंने पूछा - क्या आपने कोई लेख इस प्रकारका पत्रोंमें प्रकाशनार्थ भेजा है ? मैंने सब बातें यथार्थ रूपमें कहीं । सुनकर बोले आप उस लेखको वापिस मंगा लीजिये । मैंने कह दिया, यह तो संभव नहीं है । मेरा उत्तर सुनकर वे कुछ अप्रतिभसे होकर बोले-तब ऐसो अवस्थामें यहां कार्य करना सभव नहीं ! वान बढ़ चली और मेरा धवला