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IX
वतीकी प्रति तो बहुत ही अशुद्ध निकली, क्योंकि वह सीताराम शास्त्रीके हाथकी लिखी हुई नहीं थी। तीनों प्रतियोंमे केवल आरावाली प्रति ही उनके हाथकी लिखी हुई थी। इस वातसे मैने प्रो० हीरालालजीको भी अवगत कराया । वे अनुवाद और मूलकी प्रेसकापीको भेजनेके लिए आग्रह कर रहे थे, उनकी इच्छा थी कि ग्रन्थ जल्दी-से-जल्दी प्रेसमें दे दिया जाय । पर मैंने उन्हे स्पष्ट लिख दिया कि जब तक सहारनपुरकी प्रतिसे मिलान नहीं हो जाता, तब तक मैं ग्रन्थको प्रेसमें नहीं देना चाहता । लेकिन सहारनपुरकी प्रतिसे मिलान करना भी आसान काम नहीं था, क्योंकि ऐसा सुना जाता था कि सहारनपुर वाले छापेके प्रबल विरोधी हैं, फिर दिगम्बरोंके परम मान्य श्राद्य सिद्धान्त-ग्रन्थोंको छपानेके लिए प्रति-मिलानकी सुविधा या आज्ञा कैसे प्रदान करेंगे? चूँ कि मै सन् २४ मे सहारनपुर जा चुका था और स्व० लाला जम्बूप्रसादजीके सुयोग्य पुत्र रा० सा० ला० प्रद्युम्नकुमारजीसे परिचय भी प्राप्त कर चुका था, अतएव मैने यही उचित समझा कि सहारनपुर जाकर लालाजीसे मिलकर और उनकी आज्ञा लेकर वहांकी प्रतिसे अपनी ( अमरावतीवाली) प्रतिका मिलान कर रिक्त पाठोंको पूरा और अशुद्ध पाठोंको शुद्ध किया जाय । तदनुसार सन् ३७ की गर्मियोंमें सहारनपुर गया । वहां पहुंचनेपर ज्ञात हुआ कि लालाजी तो मसूरी गये हुए हैं । मै उनके पास मसूरी पहुंचा, सारी स्थिति उन्हें सुनाई और मिलानके लिए प्रति देनेकी आज्ञा मांगी। उन्होंने कहा-यद्यपि हमारा घराना और हमारे यहांकी समाज छापेकी विरोधी है, क्योंकि ग्रन्थके.छपने आदिमें समुचित विनय नहीं होती. सरेसके वेलनोंसे ग्रन्थ छपते हैं, आदि । तथापि जब उक्त सिद्धान्त-ग्रन्थ छपने ही जा रहे है, तो उनका अशुद्ध छपना तो और भी अनिष्ट-कारक होगा, ऐसा विचार कर और 'जिनवाणी शुद्धरूपमें प्रकट हो' इस श्रत-वात्सल्यसे प्रेरित होकर प्रति-मिलानकी सहर्प अनुमति दे दी। मैने सहारनपुर जाकर वहॉकी प्रतिसे अमरावतीकी प्रतिका मिलान-कार्य प्रारम्भ कर दिया। पर गर्मी के दिन तो थे ही, और सहारनपुरकी गर्मी तो प्रसिद्ध ही है, वहाँ १५ दिन तक मिलान-कार्य करनेपर भी बहुत कम कार्य हो सका। मै मसूरीके ठडे मौसमकी बहार हाल में ही ले चुका था, अतः सोचा, क्यों न लालाजीसे सिद्धान्त-ग्रन्थकी प्रति मसूरी लानेकी आज्ञा प्राप्त करूँ ? और दुवारा मसूरी जाकर अपनी भावना व्यक्त की । लालाजीने कुछ शर्तोंके साथ ® मसूरीमें ग्रन्थराजको लाने, प्रति-मिलान करने और अपने पास ठहरनेकी स्वीकृति दे दी और मै सहारनपुरसे धवलसिद्धान्तकी प्रति लेकर मसूरी पहुंचा । गर्मी भर लालाजीके पास रहा और श्री जिनमन्दिरमें बैठकर प्रति-मिलानका कार्य करता रहा ।। जब धवलसिद्धान्तके प्रथम खड जीवस्थानका मिलान पूरा हो गया, तो मसूरीसे लौटते हुए सरसावा जाकर श्रद्धेय प० जुगलकिशोरजी मुख्तारसे मिला, सर्व वृत्तान्त सुनाया और अब तकके किये हुए अनुवाद और प्रतिमिलानके कार्यको भी दिखाया। वे सर्व कार्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए, कुछ सशोधन सुझाए और जरूरी सूचनाए दी। मैंने उन सबको स्वीकार किया और वापिस उज्जैन आगया।
उज्जैन श्राकर सशोधित पाठोंके अनुसार अनुवादको प्रारम्भसे देखा, यथास्थान सशोधन किये, टिप्पणियां दीं और इस सबकी सूचना प्रो० हीरालालजीको दे दी।
प्रो० हीरालालजी मुझे उज्जैनकी नौकरी छोडकर अमरावती आनेका आग्रह करने
4६ ग्रन्थराज लकडीकी पेटीमें रखकर लावें, जूते पहने न लाये जावें और शूद्र कुलीके ऊपर वोझ उठवा कर न लाये जायें । तदनुसार मैं राजपुरसे कुलीके ऊपर अपना सामान रखाकर और ग्रन्थराजकी प्रति अपने मस्तकपर रख करके पैदल ही पगडडीके रास्तेसे मसूरी पहुंचा था।
सहारनपुरकी प्रतिसे मिलान करके जो पाठ लिये थे, उनमेंसे एक पृष्ठका चित्र धवलाके प्रथम भागमें मुद्रित है, जिसमें कि मेरे हस्ताक्षर स्पष्ट दिखाई देते है।