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सम्पादकीय वक्तव्य मेरे स्वप्न साक्षात् हुए--
__सन् १६२३ के दिसम्बरकी बात है, जब मै दि० जैन शिक्षा-मन्दिर जबलपुरमें न्यायतीर्थ और शास्त्रि परीक्षा पास करके जैन सिद्धान्त के उच्च ग्रन्थोंके अध्ययनके साथ बोर्डिंगके अंग्रेजी विभागके छात्रोंको धर्मशास्त्रके अध्यापनका भी कार्य कर रहा था, तब एक दिन रात्रिके अन्तिम प्रहरमें स्वप्न देखा कि मै श्रीधवल-जयधवल सिद्धान्त ग्रन्थोंका स्वाध्याय कर रहा हूँ। इतने में ही छात्रावासके नियमानुसार ४ बजे सोकर उठनेकी घंटी बजी। मैं चौंक कर उठा, हाथ मुंह धोकर प्रार्थनामें सम्मिलित हुआ और उसके समाप्त होने पर जैसे ही वापिस कमरेमें पैर रक्खा कि एक छात्रने कहा 'शास्त्री जी, आज कमरा माडनेकी आपकी बारी है।' मैंने बुहारी उठाई और एक ओरसे कमरा झाड़ना प्रारम्भ किया। अन्तमें जब मैं अपने पलंगके नीचे झाड़ रहा था, तो एक मोटा, छोटासा दोहरा हस्तलिखित शास्त्र-पत्र दिखाई दिया । मैंने उसे उठाकर प्रकाशमें पढ़ा तो यह देखकर मेरे आनन्दका पारावार न रहा कि उसमें एक
ओर काली स्याहीसे मोटे अक्षरोंमे श्रीधवलकी और दूसरी ओर श्री जयधवलकी मंगल-गाथाएं लिखी हुई हैं। मैंने उन्हे अपने मस्तकपर रख अपनेको धन्य समझा और सन्दूकमें सुरक्षित रखकर सोचने लगा-यह कैसा स्वप्न है कि देखने के साथ ही वह साक्षात् सफल हो रहा है।
इसके पश्चात् सन् २४के अक्टूबरकी बात है,जब मै बनारसके स्याद्वादमहाविद्यालयमें धर्माध्यापक था और विद्यालयमें ही सोया करता था, एक दिन फिर रात्रिके अन्तिम याममें स्वप्न देखा कि मै पुनः धवल-जयधवलका स्वाध्याय कर रहा हूँ। इतने में ही विद्यालयके छात्रोंके सोकर उठनेकी घंटी बजी, मेरी भी नींद खुली, और मै तत्काल देखे हुए स्वप्न पर विचार करने लगा। सन्दूकमेंसे मंगलगाथाओंवाले उस पत्रको उठाया, मस्तक पर रखा और एक वार उनका भक्ति और श्रद्धापूर्वक पाठकर प्राभातिक कार्यों में लग गया। दिनको सहारनपुरसे विद्यालयके मंत्री बा० सुमतिप्रसादजी-जो कि उन दिनों वहीं सर्विसमें थे-का तार विद्यालयके सुपरिन्टेन्डेन्टके नामसे आया, 'प० हीरालालजी को यहाँके वार्षिक उत्सवमें शास्त्र-प्रवचनके लिये भेजो।' मै बनारससे रवाना होकर यथासमय सहारनपुर पहुंचा। मुझे वहांके सुप्रसिद्ध तीर्थभक्तशिरोमणि, धर्मवीर (स्व०) लाला जम्बूप्रसाद जी जैन रईसकी कोठी पर ठहराया गया। दूसरे दिन प्रातःकाल जब मैं स्नानादिसे निवृत्त हो कर उनके निजी मन्दिरमें दर्शनार्थ गया, तब क्या देखता हूँ कि एक दक्षिणी सज्जन प्राकृत भाषामें कोई ग्रन्थ बांचकर सुना रहे हैं और दूसरा एक लेखक तीव्र गतिसे उन्हे लिखता जा रहा है । मैं पासमें बैठ गया और ध्यानसे सुनने लगा कि क्या विषय चल रहा है ? 'ये कौनसे ग्रन्थ हैं, इस प्रश्नके उत्तरमें मुझे बतलाया गया कि मूडबिद्री के भण्डारसे सिद्धान्तग्रन्थों की प्रतिलिपि यहाँ आई है और अब उनकी नागरी प्रतिलिपि की जा रही है । मुझे अभी ३ दिन पूर्व बनारसमें देखे हुए स्वप्नकी बात याद आई और मैंने इन सिद्धान्त ग्रन्थोंके साक्षात् दर्शन करके अपनेको भाग्यशाली माना, तथा जितने दिन वहा रहा-प्रतिदिन प्रातःकाल २ घटे उनका स्वाध्याय करता रहा। अन्तिम दिन जब वहासे वापिस आने लगा तो मन्दिरमें जाकर सिद्धान्तग्रन्थोंकी वन्दना की और मनमें प्रतिज्ञा की कि जीवनमें एक वार इन ग्रन्थोंका अवश्य स्वाध्याय करूगा।
वे दोनो पत्र अब विलकुल जीर्ण-शीर्ण हो गये हैं, फिर भी वे आज मेरे पास सुरक्षित है।