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लगे। पर मेरी भीतरी इच्छा यही थी कि उज्जैनमें रहते हुए ही सिद्धान्त-ग्रन्थोंके अनुवादका कार्य करता रहै। अत' लगभग एक वर्ष इमी दुविधामे निकल गया। सन् ३८ के अन्तमे श्री० नाथूरामजी प्रेमीका पत्र मिला,जिसमे उन्होंने लिखा था-'आप दो घोडोंकी सवारी करना चाहते है, पर यह सम्भव नहीं। या तो आप उज्जैनकी नौकरी छोडवर अमरावती चल जाइए, या फिर जो कुछ भी अनुवादादि आपने किया हो उसे प्रो० हीरालालजीको भेजकर अपना पारिश्रमिक ले लीजिए और इस कामको छोड़ दीजिए । जहां तक मैं जानता हूं आप उज्जैनकी नौकरी छोड नहीं सकेंगे, इत्यादि । पत्र बहुत लम्बा था और नौकरी छोडनेकी बात मेरे लिए चुनौती थी। मैने कई दिन तक ऊहापोह के बाद उज्जैन छोड़ने का निश्चय किया।
आखिर मैं सन २८ के दिसम्बरमै उज्जैन की नौकरी छोड़कर अमरावती पहुंच गया। प्रो०सा के परामर्शके अनुसार १जनवर। सन् ३६ से वहां अाफिन व्यवस्था करली गई। आफिसव्यवस्थाके कुछ दिन बाद ही श्री० प० फून वन्द्र जी शास्त्री भी बुला लिये गये थे और हम दोनो मिल कर कार्य करने लगे । इसी वर्ष के अन्तम धवला का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ। जब इनर टाइटिल पेन प्रेस में दिया गया और उसके ऊपर अपना अनुवादकके रूपमें नाम न देखा, तो मैने उसका विरोध किया और आगे काम न करने के लिये त्यागपत्र भी प्रस्तुत कर दिया। मुझे इस बात से बहुत धक्का लगा कि प्रो० सा० हमारा नाम अनुवादकके रूपमें क्यों नहीं दे रहे हैं, जबकि अनुवाद हमारा किया हुआ है और जिसे कि मै अमरावती पहुंचनेके ३ वर्ष पूर्वसे करता आ रहा हूँ। (पीछे इस बात को उन्होंने धवलाके प्रथम भागके प्राक्कथनमे स्वय स्वीकार किया है।) धवलाके प्रथम भागका प्रकाशन-समारम्भ श्री प्रेमीजीके द्वारा अमरावतीमे ही सम्पन्न हुआ था। समारोह में स्व० श्रीमान् प० देवकीनन्दनजी कारंजा
और मेरे श्वसुर स्व. दया चन्द्रजी बजाज रहली (सागर) भी पधारे थे । प्रेमीजी के साथ उन सब लोगोंने मुझपर भारी दवाव डाला, अपने नामके मोह छोड़नेकी बात कही, पर जब मैं किसी प्रकारसे भी त्यागपत्र वापिस लेनेको तैयार नहीं हुआ तव अन्त में सह-सम्पादकके रूपमें हम लोगोंका नाम दे दिया गया । यद्यपि मैने त्यागपत्र वापिस ले लिया, तथापि मेरे चित्तको बड़ी चोट लगी कि केसी विलक्षण वात है, काम हम करें और नाम दूसरोंका हो । जब बहुत प्रयत्न करने पर भी चित्त शान्त नहीं हुआ,तब मैंने यह स्थिर किया कि जयधवलाका अनुवाद मै स्वतन्त्रता-पूवक करूगा । इसके लिये पहले उसके मूलकी प्रेसकापी तैयार करनेका सकल्प किया और सन् ३६ के दिसम्बरसे ही अपने घर पर जयधवलाकी ग्रेसकापी करना प्रारम्भ कर दिया। मन ही मन स्थिर किया कि जिस दिन भी जयधवलाकी पूरी प्रेमकापी तैयार हो जायगी उसी दिन धवला-आफिससे सम्बन्ध विच्छेद कर लूँगा । दा वपके भीतर धवलाक तीन भाग प्रकाशित हुए और इबर ठीक दो वर्पक कठिन परिश्रम के बाद ६० हजार श्लोकोंके प्रमाणवाली जयधवलाकी प्रसकापी भी मैंने तैयार बर ला, जिराक कि फुलस्केप पृष्ठोंकी सख्या साढ़े सात हजारसे ऊपर थी। इसी समय एक देवा घटना घटी, श्री० पं० फूलचन्दजीके पुत्र की सख्न बीमारी का नार घरसे श्राया और व देश चल गये । दुर्भाग्यवश उनके पुत्रका देहान्त हो गया और उन्होंने अमरावती न आने का निश्चय प्रो- सा० का लिख भेजा । जिस दिन मै त्यागपत्र लेकर प्रो० सा० को देने के लिये उनके पास पहुचा, तो उन्होने उक्त समाचार सुनाया और पूछा कि क्या अवले श्राप यागेके अनुवादादिया काय सभाल लेगे? मैं बड़ी दुविधामे पड़ा कि यह क्या हो रहा है । जिस दिन मैं धवला-श्राफिससे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहता था. उस दिन प-फूलचन्द्रजीने सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया ।।। अन्तमे मैंने अपना त्यागपत्र अपनी जयमे ही रहने दिया और धवला-श्राफिमम यथापूर्व कार्य करता रहा ।