Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 19
________________ XIIi भाष्य लिखे, जिनमे आदिके दोनों ग्रन्थ सबसे मुद्रित हो चुके हैं । सघमें रहते हुए अचानक ललितपुरसे तार द्वारः एक सब टकी सूचना मिली और मै अवकाश लेकर घर चला आया । इस सकटमे पूरे तीन वर्ष व्यतीत हुए और हजारों रुपये बवाद । दुकानका सारा कारोबार ठप्प होगया और हम सब भाई पुन. नौकरी करनेके लिए विवश हुए। इस प्रकार सन् ४३ से ४६ तकके ६ वर्षके भीतर घरू झझटोंके कारण इन सिद्धान्त-ग्रन्थोंका मै कुछ भी कार्य न कर सका । इस समय मै नौकरीकी चिन्तामें था, कि सहारनपुरसे मेरे चिरपरिचित और अतिस्नेही ला०जिनेश्वरदासजीका पत्र पहुंचा कि आप यहां चले अाइए और गुरुकुलके आचार्यका भार संभालिए । पत्र पाते ही मै सन् ४६ की जुलाईमे सहारनपुर आगया । पहले दिन तो गुरुकुलका चार्ज सभाला और दूसरे दिन श्रीमान् ला० प्रद्युम्नकुमारजीके मन्दिरमे जाकर सिद्धान्त ग्रन्थोका सभाला और वेदक अधिकारसे चूर्णिसूत्रोंका अनुवाद करना प्रारम्भ कर दिया । वर्षों की प्रतीक्षाके बाद यहा रहते हुए प्रतिदिन प्रात काल ७॥ से ६॥ बजे तक लालाजीकी कोठीके एक बड़े एकान्त, शान्त कमरे में बैठकर मैं अनुवादका कार्य करता रहा । जब गुरुकुल वहासे हस्तिनापुर पहुंचा, तो सहारनपुकी प्रतिको वहा भी लेगया और अनुवादका कार्य बराबर जारी रखा । इसी बीच गुरुकुलमें रहते हुए खातौली जाना हुआ और ला० त्रिलोकचन्द्रकी आदिकी कृपासे वहाके मन्दिरजीकी धवल-जयधवलकी पूरी दोनों प्रतियां लेता आया। सन् ५८ के अप्रैलके अन्तमे गुरुकुल छोड़ दिया और सस्ती ग्रन्थमालामे क्षुल्लक चिदानन्दजी महाराजने मुझे दिल्ली बुला लिया। यहांपर धर्मपुरा पचायती मन्दिरकी जयधवल-प्रति भी मुझे सुलभ हो गई और कसायपाहुडके अनुवादका काम जारी रहा । यहाँ आनेपर दिल्लीकी गर्मीको सहन न कर सका और चकरौता चला गया-जोकि शिमला और मसूरीके समकक्ष ही ठडा स्थान है। वहां रहकर काफी बड़े अंशका अनुवाद किया । घटनाचक्रसे विभिन्न नौकरियोंको करते हुए मैंने ३ वषे दिल्लीमे व्यतीत किये और दोनों सिद्धान्त-प्रन्थोंके मूल सूत्रोका अनुवाद अवकाशके अनुसार करता रहा। अन्तमे सन् ५१के सितम्बर में षटखण्डागमके मूलसूत्रोंका सङ्कलन और अनुवाद पूरा किया और सन् ५३ के मार्च में कसायपाहुडके अनुवादको भी पूरा कर लिया। जब मैं धवल और जयधवल दानोंसे ही तथा सचूर्णि कसायपाहुडके प्रकाशनसे हाथ धो बैठा, तो मैंने महाधवल ( महाबन्ध ) को हाथमे लेने का विचार किया। सन् ४२ मे जब चूर्णिसूत्रों के मिलानके लिए मूडबिद्री गया था, तब महाबन्धके भी एक वार आद्योपान्त पत्रे उलट आया था और चारों अधिकारोंके अनुयोगद्वार-सम्बन्धी कुछ नोट्स भी ले आया था, तभीसे यह भावना हृदयमे घर कर गई थी। पर तब तक महावन्धको प्रति मूडबिद्रीसे बाहिर कहीं नहीं आई थी। समय आनेपर पं० सुमेरुचन्द्रजी दिवाकर सिवनीके प्रयत्नसे महाबन्धकी प्रतिलिपि भी बाहिर आई और उन्होंने अपने साथियोके साथ उसका अनुवाद भी प्रारम्भ किया। मुझे भी दिखाकर परामर्श लिया गया और कुछ दिनो बाद महाबन्धका एक भाग भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशित भी होगया । सम्पादकके नामको लेकर वहां भी विवाद उठा था और उनके दोनों साथियोका सम्बन्ध टूट गया था। प्रत जब आगेके अनुवादादि की बात चली और मुझसे उसमे सहयोग देने के लिए कहा गया, तो मैने उसे अस्वीकार कर दिया, क्योंकि सम्पादनके नामको लेकर ही मेरा धवला और कसायपाहुडसे सम्बन्ध विच्छेद हुआ और उसीके निमित्तसे दिवाकरजीके दोनो साथी अलग हुए थे । कुछ कारणोंसे जब महाबन्धके आगेके भागोंका प्रकाशन रुक गया और जब मै श्री १०५ क्षु० पूर्णसागरजीके पास दिल्ली में काम कर रहा था, तब ज्ञानपोठ काशीके मन्त्री श्री गोयलीयजी अपने किसी कामसे दिल्ली आये। मेरी उनसे भेट हुई और उन्होंने महाबन्धके आगेके भागोंका सम्पादन करने के लिए कहा। मैंने उनसे कहा कि जो

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