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प्रस्तावना ग्रन्थकी पूर्व पीठिका और ग्रन्थ-नाम प्रस्तुत ग्रन्थका सीधा सम्बन्ध अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरसे उपदिष्ट और उनके ' प्रधान शिष्य गौतम गणधर-द्वारा ग्रथित द्वादशाङ्ग श्रुतसे है । द्वादशाङ्ग श्रुतका बारहवा अग दृष्टिवाद है । इसके पांच भेद है-१ परिकर्म, २ सूत्र, ३ प्रथमानुयोग, ४ पूर्वगत और ५ चूलिका। इनमेंसे पूर्वगत श्रुत के भी चौदह भेद हैं-१ उत्पादपूर्व, २ अप्रायणीय, ३ वीर्यप्रवाद, ४ अस्तिनास्तिप्रवाद, ५ ज्ञानप्रवाद, ६ सत्यप्रवाद, ७ आत्मप्रवाद, ८ कर्मप्रवाद, ६ प्रत्याख्यानप्रवाद १० विद्यानुवाद, ११ कल्याणप्रवाद, १२ प्राणावाय, १३ क्रियाविशाल और १४ लोकबिन्दुसार । ये चौदह पूर्व इतने विस्तृत और महत्वपूर्ण थे कि इनके द्वारा पूरे दृष्टिवाद अंगका उल्लेख किया जाता था, तथा ग्यारह अंग और चौदह पूर्वसे समस्त द्वादशाङ्गा श्रुतका ग्रहण किया जाता था।
प्रस्तुत ग्रन्थकी उत्पत्ति पांचवें ज्ञानप्रवादपूर्वकी दशवी वस्तु के तीसरे पेज्जदोसपाहुडसे हुई है । पेज्ज नाम प्रेयस् या रागका है और दोस नाम द्वेपका । यतः क्रोधादि चारों कषायों और हास्यादि नव नो कषायोंका विभाजन राग और द्वेषके रूपमे किया गया है, अतः प्रस्तुत ग्रन्थका मूल नाम पेज्जदोसपाहुड है और उत्तर नाम कसायपाहुड है । चूर्णिकारने इन दोनों नामोंका उल्लेख और उनकी सार्थकताका निर्देश पेज्जदोसविहत्ती नामक प्रथम अधिकारके इक्कीसवे और बाईसवें सूत्रमे स्वयं ही किया है ।
__ कषायोंकी विभिन्न अवस्थाओंके वर्णन करने वाले पदोंसे युक्त होने के कारण प्रस्तुत ग्रन्थका नाम कसायपाहुड रखा गया है, जिसका कि संस्कृत रूपान्तर कपायप्राभृत होता है।
ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय और महत्व प्रस्तुत ग्रन्थमें क्रोधादि कषायोकी राग-द्वेप रूप परिणतिका उनके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश-गत वैशिष्टय का, कपायोके बन्ध और संक्रमणका, उदय और उदीरणाका वर्णन करके उनके उपयोगका, पर्यायवाची नामोंका, काल और भावकी अपेक्षा उनके चार-चार प्रकारके स्थानोंका निरूपण किया गया है । तदनन्तर किस कषायके अभावसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होती है, किस कपायके क्षयोपशमादिसे देशसंयम और सकलसंयमकी प्राप्ति होती है, यह बतला करके कषायोंकी उपशमना और क्षपणाका विधान किया गया है । यदि एक ही वाक्यमें कहना चाहें तो इसी वातको इस प्रकार कह सकते है कि इस ग्रन्थमें कपायोंकी विविध जातिया बतला करके उनके दूर करनेका मार्ग बतलाया गया है।
कसायपाहुडकी रचना गाथासूत्रोंमे की गई है। ये गाथासूत्र अत्यन्त ही सक्षिप्त और गूढ अर्थको लिये हुए हैं । अनेक गाथाएँ तो केवल प्रश्नात्मक है जिनके द्वारा वर्णनीय विपयके
+ जीवादि द्रव्योके उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक त्रिपदी स्वरूप पूर्ववर्ती या सर्व प्रथम - होने वाले । उपदेशोको पूर्वगत कहते हैं और आचारादिसे सम्बन्ध रखने वाले तथा दूसरोंके द्वारा पूछे गये प्रश्नोके समाधानात्मक उपदेशोको अंग कहते हैं । यत तीर्थंकरोका उपदेश गणघरोके द्वारा सुनकर नाचारोग आदि १२ अगोके रूप में निबद्ध किया जाता है, अत. उसे द्वादशाग श्रुत कहते हैं।