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VIII
सन् ३२ की बात है, जब मैं भा० व० दि० जैन महासभा के महाविद्यालय व्यावर में धर्माध्यापक था, स्वप्न में देखा, कोई कह रहा है -- 'तेरे निवासस्थान के पास ही किसी दूसरे नगर में सिद्धान्त ग्रन्थ हैं, जा, और उनका स्वाध्याय करके जीवन सफल कर' । जागनेपर मैने व्यावर और अपने देशके समीपस्थ सभी ग्राम-नगरोंपर दृष्टि दौड़ाई कि क्या किसी स्थानके शास्त्र भण्डारमे उक्त सिद्धान्त ग्रन्थोंका होना संभव है ? कहीं कुछ पता न चला और अपने पास सुरक्षित रखे उन मंगल-पद्योंका पाठ करके अपनी नोटबुकके प्रारम्भ में एक संकल्प लिखा कि जीवन में यदि अवसर मिला तो मैं इन सिद्धान्तग्रन्थोंका केवल स्वाध्याय ही नहीं करूँगाबल्कि उनका हिन्दी में अनुवाद भी करूंगा ।
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उन दिनों उज्जैनके प्रसिद्ध उद्योगपति रा० ब० जैनरत्न सेठ लालचन्दजी सेठीसे पत्र-व्यवहार चल रहा था, अन्त में मै सन् ३३ के प्रारम्भमें उनके पास उज्जैन पहुँचा । कुछ ही दिनों के पश्चात् वे झालरापाटन गये, साथ में मुझे भी ले गये। उन दिनों वहांके ऐलक पन्नालाल दि० 'जैन सरस्वती भवनमें श्री धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थोंको प्रतिलिपि श्रीमान पं० पन्नालालजी सोनीकी देख-रेख में हो रही थी । लगभग ४ मास वहां ठहरा और प्रतिदिन ४ घटे उन सिद्धान्त ग्रन्थोंमेंसे धवल-सिद्धान्तका स्वाध्याय कर उनके मूलसूत्रों का संकलन करता रहा, जो कि आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। झालरापाटन में रहते और सिद्धान्त-ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पहले धवल - सिद्धान्तका स्वाध्याय करना चाहिए -- क्योंकि उसके विना जयधवलको समझना असम्भव है । झालरापाटन में रहते हुए मैंने पट्खंडागम ( धवल सिद्धान्त ) के प्रथम खंड जीवस्थानका स्वाध्यायकर उसके पूरे सूत्रोंका संकलन कर लिया | उज्जैन वापिस आनेपर मैंने अनुभव किया कि तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद - विरचित सर्वार्थसिद्धि के प्रथम अध्याय'के आठवें सूत्र पर जो विस्तृत टीका है, वह प्रायः जीवस्थानके सूत्रोका संस्कृत रूपान्तर ज्ञात होता है । और तभी मैंने दोनोंका तुलनात्मक अध्ययनकर एक लेख लिखा, जो कि सन् ३८ के जैनसिद्धान्तभास्करके भाग ४ किरण ४में प्रकाशित हुआ है। उज्जैनमे रहते हुए अनेकों बार मेरा झालरापाटन जाना हुआ और मैंने वहां महीनों रह करके उक्त सिद्धान्तग्रन्थोका स्वाध्याय किया । साथ ही श्रीधवल सिद्धान्तका अनुवाद भी मैने प्रारम्भ कर दिया ।
इसी बीच सुनने में आया कि भेलसा-निवासी श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी जैन साहित्यके उद्धार और प्रकाशनार्थ १० हजारका दान दिया है । सन् ३४ के अन्तमं प्रो० हीरालालजी द्वारा सम्पादित जयधवलका एक फार्मवाला नमूना भी देखनेको मिला और उसपर अनेकों विद्वानों द्वारा की गई समालोचनाए और टीका-टिप्पणियां भी समाचार-पत्रोंमें देखने और पढ़ने को मिलीं । सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ प० जुगलकिशोरजी मुख्तार सरसावा, प्रसिद्ध दार्शनिक प्रज्ञाचतु प० सुखलालजी संघवी और प्रा० आ० नं० उपाध्याय कोल्हापुर श्रादिने जयधवल के उस एक फार्म के अनुवाद और सम्पादन में शब्द और अर्थगत अनेकों अशुद्धियों को बतला करके यह प्रकट किया था कि इन सिद्धान्त - ग्रन्थका सम्पादन और अनुवाद प्रो० हीरालालजी के वशका नहीं है।
इसी समय प्रो० हीरालालजीके साथ मेरा पत्र-व्यवहार प्रारम्भ हुआ और यह निश्चय हुआ कि मै उज्जैन में रहते हुए ही धवलसिद्धान्तका अनुवाद करता रहूँ और जब एक भागका अनुवाद तैयार हो जाय, तब उसे प्रेस में दे दिया जाय। मेरे पास प्रां० हीरालाल जीने श्रमरावती और आराकी प्रतियों के प्रारम्भके १००-१०० पत्र भी भिजवा दिये। झालरापाटनकी प्रति तो मुझे पहले से ही सुलभ थी, तीनों का मिलान करते हुए मुझे अनुभव हुआ कि सभी प्रतियां अशुद्ध हैं और उनमें स्थान-स्थान पर लम्बे-लम्बे पाठ छूटे हुए हैं--खासकर अमरा