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आभार प्रदर्शन
अब (अन्तमे) मैं सबसे पहले मेरी भावनाके अमर-सृष्टा, अनेक ग्रन्थोंके सम्पादक, प्राच्य-विद्या-महार्णव, सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् , वीरसेवामन्दिरके संस्थापक, वयोवृद्ध व्र० जुगलकिशोरजी मुख्तारका आभार मानता हूँ, कि जिन्होंने सर्वप्रथम इन ग्रन्थोंका आरामे ६ मास बैठकर स्वाध्याय किया, एक हजार पेजके नोटस लिए और तीनों सिद्धान्त ग्रन्थों में प्रस्तुत ग्रन्थको. सर्वाधिक प्राचीन समझ कर प्रकाशित करनेका विचार कर श्री० प० हीरालालजीसे अपना अभिप्राय व्यक्त किया, उनसे चूर्णिसूत्रोंका संग्रह कराकर उन्हे मूल ताडपत्रीय प्रतिसे मिलान करने के लिए मूडबिद्री भेजा और उसका अनुवाद करनेको कहा । उन्होंने ही आजसे कई वर्ष पूर्व इस ग्रन्थको प्रकाशित करनेके लिए मुझे प्रेरित किया था । ग्रन्थके टाइप आदिका निर्णय भी उन्होंने ही किया और प्रस्तावना लिखनेके लिए आवश्यक परामश एव सूचनाएं भी उन्होने ही दीं। तथा अस्वस्थ दशामें भी मेरे साथ बैठकर प्रस्तावनाको आद्योपान्त सुना और यथास्थान सशोधनार्थ सुझाव प्रस्तुत किये । यही क्या, जैन समाज एवं जैन साहित्य और इतिहासके निर्माणके लिए की गई उनकी सेवाएं सुवर्णाक्षरों में लिखी जानेके योग्य हैं । उन्हे मैं किन शब्दोंमें धन्यवाद द? मैं ही क्या, सारा जैनसमाज उनका सदा चिर-ऋणी रहेगा।
ग्रन्थको बनारसमें छपाने, टाइपोंका निर्णय करने और समय-समय पर मुझे और प० हीरालालजीको आवश्यक परामर्श देनेका कार्य काशी विश्वविद्यालयके बौद्ध दर्शनाध्यापक श्री०प० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने किया । भा० व० दि० जैन सघके प्रकाशन विभागके मंत्री श्री०प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने चूर्णिसूत्रों के निर्णयार्थ जयधवलाकी संशोधित प्रेसकापी देनेकी उदारता प्रकट की। श्रीगणेशवर्णी जैन ग्रन्थमालाके मन्त्री श्री० पं० फूल चन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने सदिग्य चूर्णिसूत्रोके निर्णयार्थ समय-समयपर अपना बहुमूल्य समय प्रदान किया और ग्रन्थ-सम्पादकको यथावश्यक सहयोग प्रदान किया। भारतीय ज्ञानपीठ काशीके व्यवस्थापक श्री पं० बाबूलालजी फागुल्लने बनारसमें पं० हीरालाल जीके ठहरनेकी तथा प्रेस और कागज आदिकी व्यवस्था की। उक्त कार्यो के लिए मैं बनारसकी उक्त विद्वञ्चतुष्टयीका आभारी हूँ।
डॉ॰आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय, एम.ए. डी.लिट, प्रोफेसर राजाराम कालेज कोल्हापुरने समय-समय पर आवश्यक सुझाव दिये और मुद्रित फार्मोंको देखकर उन्हे प्रकाशित करनेके लिए मुझे प्रोत्साहित किया, तथा अग्रेजीमें विषय-परिचय लिखनेकी कृपा की । इसके लिए में उनका आभारी हूँ।
श्रीमान् रा० सा० लाला प्रद्युम्नकुमारजी जैन रइस (तीर्थभक्तशिरोमणि स्व० ला० जम्बूप्रसादजीके सुयोग्य सुपुत्र ) ने अपने पिताजीके द्वारा मंगाये हुए सिद्धान्तग्रन्थोकी कनड़ी प्रतिलिपियोंकी नागरी कराई, जिससे कि उत्तरभारतमें इन सिद्धान्त ग्रन्थोंका प्रचार सम्भव हो सका । उन्होंने पडितजीको समय-समय पर धवल और जयधवलके प्रति-मिलान और अनुवाद करनेके लिए प्रति-प्रदान करनेकी सुविधा देकर अपनी सच्ची जिनवाणीकी भक्ति और उदारता प्रकट की। इस गर्मी के मौसममे-जब कि प्रस्तावनाका लिखना पण्डितजीके लिये सम्भव नहीं था, अपने पास मसूरीमें ठहरा कर उनके लिये सभी प्रकारकी आवश्यक सुविधा प्रदान की इस सबके लिए लालाजीको जितना धन्यवाद दिया जाय, थोड़ा है । विद्वत्परिपदके शंका-समाधान विभागके मन्त्री श्री० ब्र० रतनचन्द्रजी मुख्तार (सहारनपुर) धर्मशास्त्रके मर्मज्ञ और सिद्धान्त-ग्रन्थों के विशिष्ट अभ्यासी हैं । प्रस्तुत ग्रन्थके बहुभागका आपने उसके अनुवाद-कालमें ही स्वाध्याय किया है और यथावश्यक संशोधन भी अपने हाथसे प्रेसकापीपर किये हैं। ग्रन्थका