Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 10
________________ , आ० यतिवृषभकी स्वतत्र कृतिके रूपसे तिलोयपण्णत्ती प्रसिद्ध है । इसमे तीनों लोकोंकी रचना, उसका विस्तार, स्वर्ग नरक, क्षेत्र, नदी, पर्वत और तीर्थंकरादि-सम्बन्धी कुछ विशिष्ट बातों आदिका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गय है । तिलोय पण्णत्तीके अध्ययन करनेसे पता चलता है, कि उसके रचयिताने अपने समयमे प्राप्त होने वाले तत्तद्विषयक सर्व उपदेशोंका उसमें सग्रह कर दिया है । तिलोयपण्णत्तीकी रचना प्राय गाथाओंमें की गई है और स्थान-स्थानपर क्षेत्रादि के आयाम, विस्तार आदिको अकोमे भी दिखाया गया है। इसका परिमाण आठ हजार श्लोक है । ग्यारहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध सैद्धान्तिक आ० नमिचन्द्र ने इसीका सार खींच करके एक हजार गाथाओमे त्रिलोकसार नामक ग्रन्थ रचा है जो कि अपनी संस्कृत और हिन्दी टीकाओके साथ प्रगट हो चुका है। चूर्णि' क्या वस्तु है, इस बातपर प्रस्तावनामें बहुत कुछ प्रकाश डाला गया है और यह बतलाया गया है कि श्रमण भ० महावीरके वीजपदरूप उपदेशके विश्लेपणात्मक विवरण की चूर्णि कहते है । इसीका दूसरा नाम वृत्ति भी है । यतिवृषभकी कसायपाहुडचूर्णि उक्त सर्व चूर्णियोंमे प्रौढ़ कृति है, वह टीका या व्याख्या रूप न होकर विवरणात्मक है, अतएव वह वृत्तिसूत्र या चूणिसूत्र नामसे प्रसिद्ध हुई है। वृत्तिसूत्रको आधार बना करके जो विशेप विवरण किया जाता है, उसे वार्तिक कहते है । वृत्तिसूत्रके प्रत्येक पदको लेकर जो व्याख्या की जाती है उसे टीका कहते है । वृत्तिसूत्रोंके केवल विपम पदोंकी निरुक्ति करके अर्थके व्याख्यान करनेको पजिका कहते हैं । मूलसूत्र और उसकी वृत्ति इन दोनोंके विवरणको पद्धति कहते हैं। श्रा० इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे ज्ञात होता है कि कसायपाहुड पर आ० यतिवृषभ ने छह हजार श्लोक-प्रमाण चूर्णिसूत्र, उच्चारणाचार्यने बारह हजार उच्चारणावृत्ति, शामकुंडाचायेने ४८ हजार श्लोकप्रमाण पद्धति, तुम्बुलूराचार्यने चौरासी हजार चूडामणि और आ० वीरसेन जिनसेन ने सांठ हजार जयधवला टीका रची है । इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध समस्त जैनवाङमयमेसे कसायपाहुडपर ही सबसे अधिक व्याख्याएं और टीकाएं रची गई हैं । यदि उक्त समस्त टीकाओंके परिमाणको सामने रखकर मात्र २३३ गाथाओं वाले कसायपाहुडको देखा जाय, तो वह दा लाख श्लोक प्रमाणसे भी ऊपर सिद्ध होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ अपनी जयधवला नामक विशाल टीका और उसके अनुवाद के साथ वोसे प्रकाशित हो रहा है तथा अभी उसके पूर्ण प्रकाशित होने में अनेक वर्ष और लगेंगे। इधर स्वराज्य-प्राप्तिके बाद २-३ वर्षास प्राचीन प्राकृत और अपभ्रश साहित्यकी दिन पर दिन बढती हुई मागको देखकर कसायपाहुडके पूर्ण चूर्णिसूत्रोंको उनके हिन्दी अनुवादके साथ तुरन्त प्रगट करना उचित समझा गया। श्री० प० हारालालजा शास्त्री इन सिद्धान्तग्रन्थोके अनुवाद, सम्पादन, अनुसन्धान और परिशीलन में लगभग २५ वर्षांसे लगे हुए है। उन्होंने कई वर्षोंके कठिन परिश्रमके पश्चात् कसायपाहुडके चूणिसूत्रांका उद्धार करके उनका संकलन और हिन्दी अनुवाद तैयार किया है। कसायपाहुड जस प्राचान प्रन्थपर आ० यतिवृपभके महत्वपूर्ण चूर्णिसूत्रोंको देखकर और उनकी महत्ताका अनुभव कर मैन श्रीवीरशासन-संघ कलकत्चासे इसका प्रकाशन करना उचित समझा, और तदनुसार कसायपाहुड अपने चूर्णिसूत्र और हिन्दी अनुवादके साथ पाठकों के कर-कमलोंमे उपस्थित है । पं० हीरालालजीने इसके अनुवाद और सम्पादनमें जो श्रम किया है, उसका अनुभव ता पाठक करेंगे, में तो यहा केवल इतना ही कहूँगा कि उन्होंने प्रूफ-सशोधनमें भी अत्यन्त सावधानी रखी है और यही कारण है कि कहीं पर भी कोई प्रूफ-सशोधनसम्बन्धी अशुद्धि दृष्टिगोचर नहीं होती है।

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