Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 8
________________ किया है | जयधवलाकार ने लिखा है II गाथासूत्राणि सूत्राणि चूणिसूत्रं तु वार्तिकम् । टीका श्रीवीरसेनीया शेपाः पद्धति - पंजिकाः ||२६|| ( जयधवला प्रशस्ति) अर्थात् कसायपाहुडके गाथासूत्र तो सूत्ररूप हैं और उनके चूर्णिसूत्र वार्तिकस्वरूप हैं। श्री वीरसेनाचार्य - रचित जयधवला टीका है । इसके अतिरिक्त गाथासूत्रोंपर जितनी व्याख्याएँ उपलब्ध हैं, वे या तो पद्धतिरूप हैं या पजिकारूप हैं । स्वयं जयधवलाकार प्रस्तुत ग्रंथके गाथासूत्रों और चूर्णिसूत्रों को किस श्रद्धा और भक्तिसे देखते हैं, यह उन्हींके शब्दों में देखिए। एक स्थल पर शिष्यके द्वारा यह शका किये जाने पर कि कैसे जाना ? इसके उत्तर में वीरसेनाचार्य कहते है यह " एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थवड्ढमाणदिवायरादो विणिग्गमिय गोदमलोहख - जंबुसामियादि श्राइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परियमिय अज्जमंखु - गागहत्थीहितो जयिवसहमुहणयियचुरिण सुत्तायारेण परिणददिव्वज् णिकिरणादो व्यदे | ( जयध०० पत्र ३१३) अर्थात् “विपुलाचलके † शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकरसे प्रगट होकर गौतम, लोहार्य और जम्बूस्वामी आदिकी आचार्य परम्परा से आकर और गुणधराचार्यको प्राप्त होकर गाथास्वरूपसे परिणत हो पुनः आर्यमंतु और नागहस्तीके द्वारा यतिवृपभको प्राप्त होकर और उनके मुख-कमलसे चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते है ।" पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि जो दिव्यध्वनि भ० महावीरसे प्रगट हुई, वही गौतमादिके द्वारा प्रसारित होती हुई गुणधराचार्यको प्राप्त हुई और फिर वह उनके द्वारा गाथारूपसे परिणत होकर आचार्य परम्पराद्वारा आर्यमंतु और नागहस्तीको प्राप्त होकर उनके द्वारा यतिवृपभको प्राप्त हुई और फिर वहीं दिव्यध्वनि चूर्णि सूत्रो के रूपमें प्रगट हुई, इसलिए चूर्णिसूत्रों में निर्दिष्ट प्रत्येक बात दिव्यध्वनिरूप ही है, इसमें किसी प्रकार के सन्देह या शङ्काकी कुछ भी गुंजायश नहीं है । प्रस्तुत कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों में जिस ढंग से वस्तुतत्त्वका निरूपण किया गया है उसीसे 'वह सर्वज्ञ-कथित हैं' यह सिद्ध होता है । जैनोंके अतिरिक्त अन्य भारतीय साहित्य में चूर्णि नामसे रचे गये किसी साहित्यका पता नहीं लगता । जैनोंकी दि० श्वे० दोनों परम्पराओं में चूर्णिनामसे कई रचनाएँ उपलब्ध हैं, किन्तु दोनों ही परम्पराओं में अभी तक दिगम्बर श्र० यतिवृपभसे प्राचीन किसी अन्य चूर्णि - कारका पता नहीं लगा है। प्रस्तुत कसायपाहुडपर आ० यतिवृपभकी चूर्णि पाठकों के समक्ष उपस्थित हैं । इसके अतिरिक्त कम्मपयडी, सतक और सित्तरी नामक कर्म-विषयक तीन अन्य ग्रन्थों पर उपलब्ध चूर्णियां भी प्रा० यतिवृषभ-रचित है, यह इस ग्रन्थकी प्रस्तावना में सप्रमाण सिद्ध किया गया है । उक्त चूर्णिवाले चारों ग्रन्थोका सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १. कसायपाहुडचूर्णि - श्र० गुणधर-प्रणीत २३३ गाथात्मक कसायपाहुड - प्रन्थ मे 'वोच्यामि सुत्तगाहा जविगाहा जम्मि प्रत्यम्मि ॥ २ ॥ पचेव सुत्तगाहा दमणमोहस्स खवरेणाए ॥ ५ ॥ एदा सुत्तगाहाओ तुरा प्रष्णा भानगाहाय || १० || कसायपाट यह विहारप्रान्तके राजगिरिके समीपस्थ पर्वतका नाम है ।


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