Book Title: Kasaya Pahuda Sutta Author(s): Hiralal Jain Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta View full book textPage 7
________________ प्रकाशकीय वक्तव्य प्रस्तुत ग्रन्थ कसायपाहुडसुत्तको पाठकोंके हाथोंमे उपस्थित करते हुए आज मेरे हर्षका पारावार नहीं है। बहुत दिनोंसे मेरी प्रबल इच्छा थी कि मूल दि० जैन वाङ्मयके सर्व प्राचीन इन मूल आगमसूत्रों को प्रकाशमें लाया जाय । स्वराज्य-प्राप्तिके पश्चात् भारत सरकार और प्राचीन इतिहासकारोंने देशकी प्राचीन भाषाओंमें रचित साहित्य के आधार पर प्राचीन संस्कृति और भारतीय इतिहासके निर्माण के लिए तथा अपने विलुप्त गौरवको संसारके समक्ष उपस्थित करनेके लिए प्राचीन ग्रन्थोंकी खोज-शोध प्रारम्भ की। इस प्रकारके प्रकाशनोंसे भारतीय इतिहासके निर्माताओं और रिचर्स स्कालरोंको अपने अनुसन्धानमें बहुत कुछ सुविधाएं प्राप्त होंगी, इस उद्देश्यसे भी मूल आगम और उनके चूर्णिसूत्रोंको प्रकट करना उचित समझा गया। . भ० महावीरके जिन उपदेशोंको उनके प्रधान शिष्योंने जिन्हे कि साधुओंके, विशाल गणों और संघोंको धारण करने और उनकी सार-संभाल करनेके कारण गणधर कहा जाता है, संकलन करके निबद्ध किया, वे उपदेश 'द्वादशाङ्ग श्रुत' के नामसे संसारमे विश्रुत हुए। यह द्वादशाङ्ग श्रुत कई शताब्दियों तक प्राचार्य-परम्पराके द्वारा मौखिक रूपसे सर्वसाधारणमें प्रचलित रहा। किन्तु कालक्रमसे जब लोगोंकी ग्रहण और धारणा शक्तिका ह्रास होने लगा, तब श्रुतरक्षाकी भावनासे प्रेरित होकर कुछ विशिष्ट ज्ञानी आचार्योंने उस विस्तृत श्रुतके विभिन्न अंगोंका उपसंहार करके उसे गाथासूत्रोंमें निबद्ध कर सर्वसाधारणमें उनका प्रचार जारी रखा। इस प्रकारके उपसंहृत एव गाथासूत्र-निबद्ध द्वादशाग जैन वाड्मयके भीतर अनुसधान करने पर ज्ञात हुआ है कि कसायपाहुड ही सर्व प्रथम निबद्ध हुआ है । इससे प्राचीन अन्य कोई रचना अभी तक उपलब्ध नहीं है । ___ भ० महावीरके विस्तृत और गंभीर प्रवचनोंको गणधरोंने या उनके पीछे होने वाले 'विशिष्ट ज्ञानियोंने सूत्ररूपसे निबद्ध किया । सूत्रका लक्षण इस प्रकार किया गया है अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद्गूढनिर्णयम् । निर्दोष हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥ अर्थात् जिसमे थोड़ेसे असंदिग्ध पदोंके द्वारा सार रूपसे गूढ़ तत्त्वका निर्णय किया गया हो, उसे सूत्र कहते हैं । इस प्रकारकी सूत्र-रचनाओंको आगममें चार प्रकारसे विभाजित किया गया है सुत्तं गणहरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च । ' सुयकेवलिणा कहियं अभिन्नदसपुग्विणा कहिय । (सुत्त पाहुड) अर्थात् गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्न-दशपूर्वी आचार्योंके वाक्योंको या उनके द्वारा रची गई रचनाओंको सूत्र कहते हैं। उक्त व्यवस्थाके अनुसार पूर्वोके एक देशके वेत्ता होनेसे श्रीगुणधराचार्यकी प्रस्तुत कृति भी सूत्रसम होनेसे सूत्ररूपसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुई है। यही कारण है कि उस पर चूर्णिसूत्रोंके प्रणेता आ० यतिवृषभने कसायपाहुडकी गाथाओंको 'सुत्तगाहा' या 'गाहासुत्त' रूपसे अपनी चूर्णिमें उल्लेख किया है। स्वयं ग्रन्थकारने भी अपनी गाथाओंको 'सुत्तगाहा' के रूपमे निर्देशPage Navigation
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