Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 9
________________ III कषायोंकी विविध दशाओंका वर्णन करके उनके दूर करनेका मार्ग बतलाया गया है और यह प्रगट किया गया है कि किस कपायके दूर होनेसे कौन-सा आत्मिक गुण प्रगट होता है । इस पर आ० यतिवृषभने छह हजार श्लोक-प्रमाण चूर्णिसूत्र रचे हैं। २. कम्मपयडीचूर्णि-श्रा० शिवशर्मने कर्मोके बन्धन, सक्रमण, उद्वर्तना,अपवर्तना, उदीरणा, उपशामना, निधत्ति और निकाचित इन आठ करणोंका तथा कर्मोके उद्य और सत्त्वका ४७५ गाथाओंमें बहुत सुन्दर वर्णन किया है, यह ग्रन्थ कम्मपयडी या कर्मप्रकृति नामसे प्रसिद्ध है । इस पर आः यतिवृषभने लगभग सात हजार श्लोक-प्रमाण-चूर्णिकी रचना की है। ३. सतकचणि-आठों कर्मोंके भेद-प्रभेद बताकर किस-किस प्रकारके कार्य करनेसे किस-किस जातिके कर्मका बन्ध होता है, इस बातका वर्णन मात्र १०० गाथाओं में आ० शिव. शर्मने किया है, अतएव यह रचना 'सतक' या 'बन्ध-शतक' नामसे प्रसिद्ध है। इसपर दो चर्णियोंके रचे जानेके उल्लेख ग्रन्थों में पाये जाते हैं-लघुशतकचूर्णि और वृहच्छतकचूर्णि । वृहच्छतकर्णि अभी तक उपलब्ध नहीं है, अतएव वह किसकी कृति है, इस वारेमें अभी कळ भी नहीं कहा जा सकता । शतककी लघुचूर्णि मुद्रित हो चुकी है और वह तुलना करनेपर आ० यतिवृषभकी कृति सिद्ध होती है । इसका प्रमाण तीन हजार श्लोकके लगभग है। ४. सित्तरीचर्णि-इसमें आठो मूल कर्मोंके तथा उनके उत्तर भेदोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानोंका स्वतत्र रूपसे और जीवसमास-गुणस्थानोके आश्रयसे विवेचन किया गया है और अन्त में मोहकर्मकी उपशमविधि और क्षपणाविधि बतलाई गई है । उक्त सर्व वर्णन मात्र ७० गाथाओमें किये जानेसे यह सित्तरी या सप्ततिका नामसे प्रसिद्ध है। इसके रचयिताका नाम अभी तक अज्ञात है । इसकी जो चूणि प्रकाशमे आई है, उसके रचयिताका नाम भी अभी तक अज्ञात ही है। किन्तु छान-बीन करने पर वह भी आ० यतिवृषभकी रचना सिद्ध होती है। सित्तरीचूर्णिका भी प्रमाण लगभग ढाई हजार श्लोकके है। उक्त चारों चर्णियां गद्यमें रची गई है, और उनकी भाषा प्राकृत ही है । सतक और सित्तरीचर्णिमें जहाँ कहीं सस्कृतमें भी कुछ वाक्य पाये जाते हैं, पर वे या तो प्रक्षिप्त हैं, या फिर भाषान्तरित । यद्यपि ये चारों ही चूर्णिया अन्य आचार्य-प्रणीत ग्रन्थों पर रची जानेसे व्याख्यारूप हैं, तथापि उनमें यतिवृषभका व्यक्तित्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है और मूलके अतिरिक्त कई विषयोंका प्रकरणवश स्वतत्रतापूर्वक विशिष्ट वर्णन किये जानेसे उनकी मौलिक आगमिकताकी छाप भी पाठकके हृदयपर अकित हुए विना नहीं रहती। चूर्णिसूत्रोंकी रचना-शैलीसे ही उनकी अति-प्राचीनता प्रमाणित होती है। श्वेताम्बर भण्डारोंमे ऐसे कई प्राचीन दि० जैन ग्रन्थ सुरक्षित रहे हैं, जो कि अभी तकके अन्वेपित दि० भण्डारोंमें उपलब्ध नहीं हुए। जैसे सिघी ग्रन्थमाला कलकत्तासे प्रकाशित अकलंकदेवका सभाष्य प्रमाणसग्रह, सिद्धिविनिश्चयटीका, इत्यादि । ' इस प्रकारके ग्रन्थोंमेंसे अनेक ग्रन्थोंपर श्वे०आचार्योंने टीकाएँ रच करके उन्हें अपनाया और पठन-पाठनके द्वारा सर्व-साधारणमें उनका प्रचार सुलभ रखा, इसके लिए दि० सम्प्रदाय उनका आभारी है। किन्तु दि० भण्डारोंमें उन ग्रन्थोंके न पाये जानेसे कई ग्रन्थोंके मूल रच. यिताओंके या तो नाम ही विलुप्त हो गए, या कई ग्रन्थ-प्रणेताओके नाम सदिग्ध कोटिमें आगये, और कईयों के नाम भी नामान्तरित हो गये। . ऐसे विलुप्त कई ग्रन्थकारोंकी कीर्विको पुनरुज्जीवित करनेके लिए प्रस्तुत ग्रन्थ बड़ा उपयोगी सिद्ध होगा।

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