________________ (22) अनेक जन्म तक रोते-रोते भी छूटता नहीं है। कल्पसूत्र के अंतिम भाग में स्पष्ट कहने में आया है कि- जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा। जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा। जो उपशम पाता है, उसे आराधना होती है। जो उपशम नहीं पाता, उसके आराधना नहीं होती। इसलिए जैन धर्म का परम ध्येय जो उपशम है, उसका जब तक आश्रय लेने में न आये तब तक तप-जप आदि धर्म-कृत्य सफल नहीं हो सकते। चित्त में विवेक और श्रद्धा दोनों को समान स्थान दे कर तथा बैर-विरोधजनक हिंसा से दूर रह कर पर्वाराधन में मशगुल रहना ही श्रेयस्कर मार्ग है। अस्तु। अब अन्त में कतिपय प्रासंगिक सूचनाएँ सूचित कर विराम लेते हैं 1. वीतराग के वचन पर दृढ़ श्रद्धा रखने वाला हो, शास्त्र-वाचन की रुचिवाला हो, शास्त्र का मर्म अच्छी तरह समझाने में दक्ष हो, प्रतिक्रमणादि क्रिया करने-कराने में आलसी न हो और शान्त प्रकृति वाला सहनशील हो; वही गृहस्थ वाचन-विधि के अनुसार यह बालावबोध सुनाने का अधिकारी है। 2. सुनाने वाला व्यक्ति सामायिक या पौषध ले कर ऊँचे आसन पर पुस्तक रख कर, मुख के आगे मुखवस्त्रिका रख कर और 'पुरिम चरिमाण कप्पो....' यह मांगलिक गाथा नवकारपूर्वक बोल कर श्रोताओं को पढ़ कर सुनाये। खुले मुख या नीचे आसन पर पुस्तक रख कर पढ़ना या सुनाना नहीं। 3. सुनने वाले श्रोता भी पुस्तक के सन्मुख दीप-धूप और गहुँली कर के विनय-बहुमानपूर्वक कोलाहल किये बिना स्थिर चित्त रख कर कल्पसूत्र का श्रवण करें और सुनने के बाद सूत्रपूजा और जयारव से सूत्र का बहुमान करें। 4. श्रोताओं की सभा में जितने दिन तक कल्पसूत्र बालावबोध पढ़ कर सुनाना हो, उतने दिन तक सुनाने वाले को सचित्त का त्याग करना चाहिये, गरम जल पीना चाहिये, भूमि पर शयन करना चाहिये, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये, कलह-कंकास से दूर रहना चाहिये, किसी को बुरा लगे, ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिये, चिलम या बीड़ी आदि नहीं पीना चाहिये, आत्मा को संवर भाव में रखना चाहिये और कम से कम बियासणा का तप करना चाहिये।