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उसके लिए निमंत्रण है। प्यास ही प्रार्थना है। जो प्यास नहीं जानते, वे और शब्द दोहराते हैं। जिनको प्यास की समझ आ गई, वे सिर्फ प्यास ही प्यास में डूब जाते हैं। वे इतने प्यासे हो जाते हैं कि भीतर कोई प्यासा भी नहीं होता, बस प्यास ही प्यास | होती है - इस पार से उस पार, रोएं- रोएं में, धड़कन धड़कन में, श्वास - श्वास में !
अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर अगर है तश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे।
अगर प्यास पूरी है तो तुमने प्याला तो तैयार कर दिया। अब, अब तुम फिक्र छोड़ो! अब शराब भी आ जाएगी। अब कोई भर भी देगा प्याले को, तुम प्याला तो बनाओ!
सदा ही परमात्मा अकारण घटित होता है। इससे तुम गलत मत समझ लेना मुझे। तुम यह मत समझ लेना कि फिर क्या करना । जब मैं कहता हूं कि अकारण घटित होता है, तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम जो भी करते हो, वह तो ना कुछ है । जब परमात्मा घटित होगा तो तुम जानोगे, अरे! मैंने कुछ भी तो नहीं किया था! यद्यपि तुमने बहुत किया था, लेकिन अब तुम जानोगे कि कुछ भी तो न किया था। जो मिला है, वह इतना ज्यादा है कि जो किया था अब उसकी बात भी करनी फिजूल है। मिला है। खजाना अकूत, जो तुमने किया था वह कौड़ी-कौड़ी था । अब उसकी बात भी उठाने में शर्म लगेगी। फिर तुम यह थोड़े ही कहोगे परमात्मा से कि 'सुनो जी ! कितने उपवास किए, याद है? कि कितने ध्यान में बैठता था, भूल तो नहीं गए? कितना दान-पुण्य किया था!'
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प्यास ही प्रार्थना है
होता है जो तुमने किया है। क्या किया है? कभी एक पैसा किसी भिखारी को दे दिया है। और उसी की जेब काटी थी पहले; नहीं तो भिखारी ही कैसे होता, यह भी तो सोचो। फिर उसी को समझाने लिए एक पैसा भी दे दिया है कि उपद्रव न कर, हड़ताल वगैरह पर मत जा, शांत रह। क्या किया है तुमने ? चार पैसे भिखारी को दिए थे!
द्वारपाल चिंतित हो गया। उसने अपने सहयोगी से पूछा, बोल भाई, क्या करें ? उसने कहा, 'करना क्या है! चार पैसे वापस दो और कहो कि नर्क जा, नर्क जा, खत्म कर मामला, हिसाब
साफ कर !'
तुम्हारा किया कितना हो सकेगा ? चम्मच चम्मच से सागर के किनारे हम बैठे हैं। चम्मचें भर रहे हैं, इससे कहीं सागर उलिचता है ! इससे कहीं कुछ होता नहीं।
लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना कि मैं यह कह रहा हूं कि चलो, झंझट मिटी, चार पैसे भी अब देने की कोई जरूरत नहीं । यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे कहता हूं, देना ! दिल खोलकर देना! लेकिन आखिर में याद रखना कि वे चार पैसे ही दिये। कितना ही दिया हो, सब दे दिया हो, सब लुटा दिया हो, तो भी चार पैसे ही तुम्हारे पास थे, ज्यादा तो तुम्हारे पास ही न था, ज्यादा तुम देते भी कैसे !
इसलिए जिन्होंने पाया है, उनको हमेशा लगा कुछ भी तो नहीं किया, प्रसाद स्वरूप है । यहीं भूल पैदा होती सुननेवाला समझ लेता है, चलो तब अब यह भी झंझट नहीं । अब कुछ करना ही नहीं; जब मिलना है प्रसाद रूप तो जब मिलेगा, मिलेगा। लेकिन प्रसाद उन्हीं को मिलता है जो अपनी समग्र चेष्टा करते हैं। मिलता प्रसाद रूप है लेकिन प्रसाद उन्हीं को मिलता है जो समग्र चेष्टा करते हैं।
सुना है मैंने, एक कंजूस मरा। स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा। द्वारपाल ने पूछा कि 'कुछ पुण्य वगैरह किए हैं?' ध्यान रखना, ठीक से कहानी सुन लेना, पूछेगा, तुम भी जब जाओगे ! और वही गलती मत कर देना जो इस आदमी ने की। उसने कहा, 'हां किये हैं।' बस यही तो पापी का लक्षण है। अगर वह कह देता ‘कहां! क्या पुण्य! सामर्थ्य कहां! करने को मेरे पास क्या था!' द्वार खुल जाते, लेकिन चूक गया। उसने कहा, 'किए हैं।' तो द्वारपाल ने कहा, 'फिर ठहरो। फिर खाते-बही देखने पड़ेंगे। हिसाबी - किताबी आदमी हो।' खाते-बही देखे तो पता चला, एक भिखारी को चार पैसे उसने दान दिए थे।
मैं इस पे हो लूं तक तो फिर उठा के पिऊं ।
अब तो जरा बलिहारी हो जाओ। कहो कि जरा रख जमीन
तुम कहोगे 'बस इतना ?' लेकिन 'बस इतना ही सिद्ध पर, पहले मैं नाच लूं, थोड़ा बलिहारी हो जाऊं इस पर, फिर
इसलिए चिंता मत करो। संकल्प से मिला या समर्पण से, यह भी छोड़ो। कैसे मिला, इसकी क्या फिक्र ! मिला ! अब तो थोड़ा नाचो ! अब विचार छोड़ो, अब तो थोड़ा समारोह करो! अब तो कुछ उत्सव करो !
जमीं पे जाम को रख दे, जरा ठहर साकी
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