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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास इस प्रकार स्पष्ट है कि विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न कारणों से श्वेताम्बर श्रमण संघ का विभाजन होता रहा और नये-नये गच्छ अस्तित्व में आते रहे । इन गच्छों का इतिहास जैनधर्म के इतिहास का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अध्याय है, परन्तु इस ओर अभी तक विद्वानों का ध्यान बहुत कम ही है। आज से लगभग ५५ वर्ष पूर्व महान् साहित्यसेवी स्व० अगरचन्द जी नाहटा
और भंवरलाल जी नाहटा ने यतीन्द्रसूरिअभिनन्दनग्रन्थ में "जैन श्रमणों के इतिहास पर संक्षिप्त प्रकाश" नामक लेख प्रकाशित किया था और लेख के प्रारम्भ में ही विद्वानों से यह अपेक्षा की थी कि वे इस कार्य के लिये आगे आयें । स्व० नाहटा जी के उक्त कथन को आदेश मानते हुए प्राध्यापक एम०ए० ढांकी की प्रेरणा और सहयोग से मैंने श्वेताम्बर श्रमणों के गच्छों के इतिहास लेखन का कार्य प्रारम्भ किया, जिनका साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है।।
अंचलगच्छ अपरनाम विधिपक्ष- वि० सं० ११५९ या ११६९ में उपाध्याय विजयचन्द्र (बाद में आर्यरक्षितसूरि) द्वारा विधिपक्ष का पालन करने के कारण उनकी शिष्य-संतति विधिपक्षीय कहलायी। प्रचलित मान्यता के अनुसार इस गच्छ के अनुयायी श्रावकों द्वारा मुंहपत्ती के स्थान पर वस्त्र के दोर (अंचल) से वन्दन करने के कारण अंचलगच्छ नाम प्रचलित हुआ। इस गच्छ में अनेक विद्वान् आचार्य और मुनिजन हुए हैं और उनमें से विभिन्न आचार्यों की कृतियाँ आज उपलब्ध होती हैं । इस गच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं । इनमें प्राचीनतम लेख वि०सं० १२०६ का है। अपने उदय से लेकर आज तक इस गच्छ की अविच्छिन्न परम्परा विद्यमान है।
आगमिकगच्छ - पूर्णिमापक्षीय शीलगुणसूरि और उनके शिष्य देवभद्रसूरि द्वारा जीवदयाणं तक का शक्रस्तव, ६७ अक्षरों का परमेष्ठीमंत्र और तीन स्तुति से देववंदन आदि बातों में आगमों का समर्थन करने के कारण वि०सं० १२१४ या वि०सं० १२५० में आगमिकगच्छ या त्रिस्तुतिकमत की ★ मेरे द्वारा लिखित इस गच्छ का इतिहास २००१ ईस्वी में प्रकाशित हो चुका है।
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