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चैत्रगच्छ का संक्षिप्त इतिहास प्राक् मध्ययुगीन और मध्ययुगीन श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में चैत्रगच्छ भी एक था। चैत्रपुर (संभवतः चितौड़) से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। यह गच्छ कब और किस कारण से अस्तित्व में आया, इस बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है । साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों में इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं, यथा चैत्रगच्छ, चित्रवालगच्छ, चैत्रवालगच्छ, चित्रपल्लीगच्छ, चित्रगच्छ आदि । धनेश्वरसूरि इस गच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं । इनके पट्टधर भुवनचन्द्रसूरि हुए, जिनके प्रशिष्य और देवभद्रसूरि के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि से वि० सं० १२८५ / ई० सन् १२२९ में तपागच्छ का प्रादुर्भाव हुआ। देवभद्रसूरि के अन्य शिष्यों से चैत्रगच्छ की परम्परा अविच्छिन्न रूप से लम्बे समय तक चलती रही । चितौड़ के निकट स्थित घाघसा एवं चीरवा नामक स्थानों से प्राप्त वि० सं० १३२२ एवं वि०सं० १३३० के ऐतिहासिक महत्त्व के शिलालेखों के रचनाकार धनेश्वरसूरि भी इसी गच्छ के थे।
चैत्रगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिए साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं । साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ से सम्बद्ध मात्र कुछ ग्रन्थ एवं पुस्तक प्रशस्तियां मिलती हैं । इस गच्छ की कोई पट्टावली भी नहीं मिलती है, किन्तु तपागच्छ के चैत्रगच्छ से ही उद्भूत होने के कारण तपागच्छीय आचार्यों की विभिन्न प्राचीन कृतियों की प्रशस्तियों एवं तपागच्छ की विभिन्न पट्टावलियों में चैत्रगच्छ के प्रारम्भिक आचार्यों का उल्लेख मिलता है, जो इस प्रकार है :
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