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चैत्रगच्छ
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रत्नप्रभसूरि (वि० सं० १३२२ के घाघसा
एवं वि० सं० १३३० के चीरवा
के शिलालेखों के रचनाकार) तपागच्छीय प्राचीन ग्रन्थप्रशस्तियों एवं पट्टावलियों में उल्लिखित चैत्रगच्छीय धनेश्वरसूरि, भुवनचन्द्रसूरि, देवभद्रसूरि, जगच्चन्द्रसूरि आदि से घाघसा एवं चीरवा अभिलेखों में उल्लिखित चैत्रगच्छीय रत्नप्रभसूरि और उनके पूर्ववर्ती मुनिजनों का क्या सम्बन्ध था, इस बारे में प्रमाणों के अभाव में कुछ भी कह पाना कठिन है।।
चैत्रगच्छ से सम्बद्ध दो जैन लेख चित्तौड़ से प्राप्त हुए हैं। इनमें से एक लेख चैत्रगच्छ की मूलशाखा और दूसरी भर्तृपुरीयशाखा से सम्बद्ध है। त्रिपुटी महाराज ने प्रथम लेख की वाचना इस प्रकार दी है :
"---कार्तिक सुदि १४ चैत्रगच्छे रोहणाचलचिंतामणि--- सा मणिभद्र सा० नेमिभ्यां सह वंडाजितायाः सं राजन श्रीभुवनचन्द्रसूरिशिष्यस्य विद्वत्तया सुहत्तया व रंजितं श्रीगुर्जरराज श्रीमेदपाट प्रभु प्रभृति क्षितिपतिमानितस्य श्री (३) xxx लघुपुत्र देदासहितेन स्वपितुरामित्य प्रथमपुत्रस्य वर्मनसिंहस्य पूर्वप्रतिष्ठित श्रीसीमंधरस्वामी श्रीयुगमंधरस्वामी"
उक्त लेख में उल्लिखित भुवनचन्द्रसूरि और उनके शिष्य (नाम अज्ञात) को घाघसा और चीरवा के लेखों में उल्लिखित भुवनचन्द्रसूरि और उनके विद्वान् शिष्य एवं लेख के रचयिता रत्नप्रभसूरि से समीकृत किया जा सकता है और इस स्थिति में उक्त लेख का काल भी वि० सं० १३२२ - १३३० के आसपास माना जा सकता है।
चैत्रगच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेखों का विवरण इस प्रकार है :
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