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नाणकीयगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में नाणाकीयगच्छ का प्रमुख स्थान रहा है। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है अर्बुदमण्डल के अन्तर्गत नाणा नामक स्थान से यह गच्छ अस्तित्व में आया । इसके नाणगच्छ, नाणागच्छ, नाणावालगच्छ आदि नाम भी मिलते हैं । यह गच्छ वि० सं० की ११वीं शताब्दी के लगभग अस्तित्व में आया । शांतिसूरि इस गच्छ के पुरातन आचार्य माने जाते हैं। उनके बाद सिद्धसेनसूरि, धनेश्वरसूरि और महेन्द्रसूरि क्रमानुसार पट्टधर बने । इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों के यही चार नाम पुन: पुन: मिलते हैं। चैत्यवासी गच्छों में प्रायः यही परम्परा मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि गच्छ के प्रारम्भिक एवं प्रभावशाली आचार्यों के नाम उनके 'पट्ट' के रूप में रुढ़ हो जाते थे और उन पर प्रतिष्ठित होने वाले मुनि को आचार्यपद के साथ साथ उक्त 'पट्ट नाम' भी प्राप्त होता
रहा ।
नाणकीय गच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत मात्र दो ग्रन्थों के प्रतिलेखन की दाता प्रशस्तियाँ ही उपलब्ध हैं, इसके विपरीत अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत लगभग १४० प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं। दोनों साक्ष्यों की संख्या में इस विषमता को देखते हुए यह स्वीकार करना पड़ता है कि इस गच्छ के मुनिजन साहित्योपासना को छोड़कर चैत्यों, जिनमंदिरों और उपाश्रयों ( वसतियों) की व्यवस्था एवं देख-रेख में ही अपना सम्पूर्ण समय व्यतीत करते रहे । श्रावकों को नूतन जिनालयों एवं तीर्थंकर प्रतिमाओं के निर्माण की प्रेरणा देना ही इनका
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