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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास
जैसा कि इस लेख के प्रारम्भ में हम देख चुके हैं अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा चैत्रगच्छीय मलयचन्द्रसूरि की गुरु-परंपरा इस प्रकार निश्चित होती है :
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हरिप्रभसूरि I धर्मदेवसूरि
(वि० सं० १३९१ - १४३० )
(वि० सं० १४४६ - १४६६)
(वि० सं० १४७४ - १५०३)
समसामयिकता के आधार पर पार्श्वचन्द्रसूरि के शिष्य मलयचन्द्रसूरि और चैत्रगच्छ की चन्द्रसामीय शाखा के लक्ष्मीसागरसूरि के गुरु मलयचन्द्रसूरि को एक ही व्यक्ति माना जा सकता है । लक्ष्मीसागरसूरि के पश्चात् इस शाखा का कोई उल्लेख नहीं मिलता, अतः यह कहा जा सकता है कि उनके बाद इस शाखा का अस्तित्व समाप्त हो गया होगा । चैत्रगच्छ की यह शाखा चन्द्रसामीय क्यों कहलायी, इस सम्बन्ध में हमें कोई सूचना प्राप्त नहीं होती।
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1 पार्श्वचन्द्रसूरि
1 मलयचन्द्रसूरि
५. सलषणपुराशाखा - इस शाखा से सम्बन्ध केवल दो प्रतिमायें मिली हैं, जो वि० सं० १५३० / ई० सन् १४७४ में एक ही तिथि में, एक ही मुहुर्त में और एक ही आचार्य द्वारा प्रतिष्ठापित हुई हैं। ये प्रतिष्ठापक आचार्य हैं चैत्रगच्छीय सलषणपुराशाखा के आचार्य ज्ञानदेवसूरि । आचार्य विजयधर्मसूरि" ने इन लेखों की वाचना इस प्रकार दी है :
संवत १५३० वर्षे पो (पौ) ष वदि ६ रवौ श्रीश्री मालज्ञातीय श्रे० देपाल भा० हरपू सुत भूमाकेन भा० माल्हणदे हेदान (नि) मित्तं सुसुवसहितेन
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