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आगमिक गच्छ
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सकता है। आगे यशोभद्रसूरि के तीन शिष्यों-सर्वाणंदसूरि, अभयदेवसूरि और वज्रसेनसूरि को पट्टावलीकार मुनिसागरसूरि ने एक सीधे क्रम में रखा है वहीं धंधूकीया शाखा की पट्टावली में उन्हें यशोभद्रसूरि का शिष्य बतलाया गया है। सर्वाणंदसूरि की शिष्यपरम्परा में जिनचन्द्रसूरि हुए, शेष दो आचार्यों अभयदेवसूरि और वज्रसेनसूरि की शिष्यपरम्परा आगे नहीं चली। जिनचन्द्रसूरि के शिष्य विजयसिंहसूरि का दोनों पट्टावलियों में समान रूप से उल्लेख है। पट्टावलीकार मुनिसागरसूरि ने जिनचन्द्रसूरि के दो अन्य शिष्यों हेमसिंहसूरि और रत्नाकरसूरि का भी उल्लेख किया है, परन्तु उनकी परम्परा आगे नहीं चली । विजयसिंहसूरि के शिष्य अभयसिंहसूरि का नाम भी दोनों पट्टावलियों में समान रूप से मिलता है। अभयसिंहसूरि दो शिष्यों - अमरसिंहसूरि और सोमतिलकसूरि से यह गच्छ दो शाखाओं में विभाजित हो गया । अमरसिंहसूरि की शिष्यसन्तति आगे चलकर धन्धूकीया शाखा और सोमतिलकसूरि की शिष्यपरम्परा विडालंबीया शाखा के नाम से जानी गयी । यह उल्लेखनीय है कि प्रतिमालेखों में कहीं भी इन शाखाओं का उल्लेख नहीं हुआ है, वहाँ सर्वत्र केवल आगमिकगच्छ का ही उल्लेख है, किन्तु कुछ प्रशस्तियों में स्पष्ट रूप से इन शाखाओं का नाम मिलता है तथा दोनों शाखाओं की पट्टावलियाँ तो स्वतन्त्र रूप से मिलती ही हैं, जिनकी प्रारम्भ में चर्चा की जा चुकी है।
अभयसिंहसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित एक जिनप्रतिमा पर वि० सं० १४२१ का लेख उत्कीर्ण है, अत: यह माना जा सकता है कि वि० सं० १४२१ के पश्चात् अर्थात् १५वीं शती के मध्य के आसपास यह गच्छ दो शाखाओं में विभाजित हुआ होगा ।
चूँकि इस गच्छ के इतिहास से सम्बद्ध जो भी साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं, वे १५वीं शती के पूर्व के नहीं है और इस समय तक यह गच्छ दो शाखाओं में विभाजित हो चुका था अत: इन दोनों शाखाओं का ही अध्ययन कर पाना सम्भव है । शीलगुणसूरि तक के ८
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