________________
कोरंट गच्छ का संक्षिप्त इतिहास
ई० सन् की दसवीं - ग्यारहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर जैन श्रमण संघ का नगरों, उपनगरों आदि के आधार पर भी विभाजन होने लगा । इसी क्रम से कोरटा नामक स्थान से कोरंटगच्छ, नाणा से नाणकीयगच्छ, ब्रह्माण से ब्रह्माणगच्छ, संडेर से संडेरगच्छ आदि अनेक गच्छ अस्तित्व में आये । विभाजन की यह प्रक्रिया परवर्ती शताब्दियों में भी जारी रही। प्रस्तुत लेख में कोरंटगच्छ के इतिहास पर प्रकाश डाला गया है
गच्छों के इतिहास के अध्ययन के लिये साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं । साहित्यिक साक्ष्य के अन्तर्गत ग्रन्थ और पुस्तक प्रशस्तियों एवं गच्छ से सम्बन्धित गुर्वावली - पट्टावली आदि उल्लेखनीय हैं । अभिलेखीय साक्ष्यों में सम्बद्ध गच्छ के आचार्यों द्वारा विभिन्न स्थानों पर प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों की चर्चा की सकती है।
कोरंटगच्छ मध्ययुगीन श्वेताम्बर जैन संघ के चैत्यवासी आम्नाय से सम्बद्ध रहा है। उपकेशगच्छ की एक शाखा के रूप में इसकी मान्यता है । इस गच्छ के आचार्यों के ये तीन नाम कक्कसूरि, सावदेव (सर्वदेव) सूरि और नन्नसूरि पुन: पुन: मिलते हैं । इस गच्छ का सर्वप्रथम उल्लेख वि० सं० १२०१ के एक प्रतिमा लेख में और अन्तिम उल्लेख रायपसेणियसुत्त की वि० सं० १६१९ की प्रतिलिपि की प्रशस्ति में प्राप्त होता है । इस प्रकार लगभग ४०० वर्षों तक इस गच्छ का अस्तित्व रहा ।
कोरंटगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये सीमित संख्या में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org