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खंडिलगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
निर्ग्रन्थ दर्शन के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ईस्वी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में विभाजन की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई, वह आगे भी जारी रही, जिसके फलस्वरूप पूर्वमध्ययुग में विभिन्न छोटे-बड़े गच्छ अस्तित्व में आये, जिनमें से खंडिलगच्छ भी एक है। यह गच्छ खंडेला नामक स्थान से अस्तित्व में आया । सिद्धसेनसूरि ने अपनी सुप्रसिद्ध कृति सकलतीर्थस्तोत्र' में इस स्थान का उल्लेख एक जैन तीर्थ के रूप में किया है। वि० सं० १०५५ । ई० स० ९९८ में रची गयी धर्मरत्नाकर की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके रचनाकार यहां आये थे। इसका नाम खंडिल्ला और खण्डेलपुरा भी प्रचलित रहा है। वर्तमान राजस्थान प्रान्त के सीकर जिले में जिला मुख्यालय से ४५ किलोमीटर दूर स्थित यह स्थान आज 'खण्डेला' के नाम से जाना जाता है। यहां प्राचीन जिनालयों एवं अन्य स्मारकों के अवशेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं जिनसे विभिन्न जिन प्रतिमायें, जो मध्ययुगीन हैं, प्राप्त हुई हैं।
भावदेवसूरि इस गच्छ के प्रथम आचार्य माने जाते हैं, उनके नाम पर इस गच्छ का एक नाम 'भावदेवाचार्यगच्छ' भी प्रचलित हुआ। इस गच्छ के आचार्य स्वयं को कालकाचार्यसंतानीय कहते हैं, अत: इसका यह भी एक नाम प्रचलन में आया। प्रतिमालेखों में इस गच्छ का नाम भावडारगच्छ एवं भावड़गच्छ भी मिलता है। प्रभावकचरित (रचनाकाल वि० सं० १३३४) के अन्तर्गत 'वीरसूरिचरितम्' में चन्द्रकुल की एक शाखा के रूप में इस गच्छ का उल्लेख प्राप्त होता है । इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को
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