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खंडिल गच्छ १.
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ॐ जिनदेवः सूरिस्तदनु श्रीभावदेवनामाभूत् । आचार्य विजयसिंह स्वच्छिष्यस्तेन च प्रोक्तैः ॥ १ ॥ २. सुश्रावकैर्नवग्रामस्थानादिस्यै स्वशक्तितः वर्द्धमानश्चतुर्बिंब: कारितोऽयं सभक्तिभिः ||२|| संवत्सरै १०८० यंभकपप्पकाभ्यांघटितः ॥ ॐ ॥
G Buhler, ``Further Jaina Inscriptions From Mathura” Epigraphia Indica, Vol. II, Pp. 195-212, No. XLI. यद्यपि इस लेख में कहीं भी गच्छ का नाम नहीं मिलता, फिर भी इसमें जिनदेवसूरि, भावदेवसूरि और विजयसिंहसूरि का नाम मिलने से इसे खंडिलगच्छ से सम्बद्ध मानने में कोई बाधा दिखाई नहीं देती । इस आधार पर इस लेख को इस गच्छ का सर्वप्राचीन साक्ष्य माना जा सकता
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है १४
इस गच्छ के नामोल्लेख वाला सर्वप्रथम लेख वि० सं० १९९६ का परन्तु इसमें प्रतिष्ठापक आचार्य का नाम नहीं मिलता। यही बात वि० सं० १२१४ का एक लेख " जो आबू के निकट स्थित सीवेरा नामक ग्राम के एक जिनालय में संरक्षित ऋषभदेव की प्रतिमा पर उत्कीर्ण है, के बारे में भी कही जा सकती है । वि० सं० १२३७ के लेख में स्पष्ट रूप से प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य के रूप में विजयसिंहसूरि का उल्लेख है । १६ वि० सं० १५७८ तक के प्रायः सभी लेखों में प्रतिष्ठापक आचार्य का नाम मिलता है, जिनकी संक्षिप्त तालिका इस प्रकार है :
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जिनदेवसूरि
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भावदेवसूरि
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विजयसिंहसूरि |
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