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चन्द्रगच्छ
४२७ ११२५/ ईस्वी सन् १०६९ में संवेगरंगशाला की रचना की ।३१ ग्रन्थ की प्रशस्ति में इन्होंने अपने गुरु जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि की प्रशंसा की
३. अभयदेवसूरि - जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है ये चन्द्रकुल के आचार्य जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे । इन्होंने जैन आगम ग्रंथों में सर्वप्रधान ११ अंग सूत्रों में से ९ अंग सूत्रों पर संस्कृत भाषा में टीकायें लिखीं। इन्हें श्वेताम्बर परम्परा के प्रायः सभी गच्छों के न केवल समकालीन विद्वानों ने बल्कि परिवर्ती काल के विद्वानों ने भी बड़ी श्रद्धा के साथ प्रमाणभूत एवं तथ्यवादी आचार्य के रूप में स्वीकृत किया है और इनके वचनों को सदैव आप्त वाक्य की कोटि में रखा है। जिन चैत्यवासी मुनिजनों का जिनेश्वरसूरि ने प्रबल विरोध किया था, उन्हीं में से एक पक्ष के अग्रगण्य एवं राज्यमान्य और बहुश्रुत द्रोणाचार्य (निर्वृत्तिकुलीन) ने अपनी प्रौढ पण्डित परिषद के साथ अभयदेवसूरि द्वारा रची गयी वृत्तियों का बड़े ही सौहार्द के साथ आद्योपरांत संशोधन करते हुए इनके प्रति सौजन्य प्रदर्शित किया है।३२ अभयदेवसूरि ने वि० सं० ११२०/ ई. सन् १०६४ में स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग और ज्ञातृधर्मकथा की वृत्तियां अणहिलपुरपत्तन में समाप्त की तथा जैन आगमों में सर्वप्रधान और बृहद्परिमाण भगवतीसूत्र की व्याख्या वि० सं० ११२८ / ई. सन् १०७२ में पूर्ण की । इनके द्वारा रची गयी अन्य टीकाओं का रचनाकाल ज्ञात नहीं है। उक्त टीकाओं के अतिरिक्त प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी, पंचाशकवृत्ति, जयतिहुअणस्तोत्र, पंचनिर्ग्रन्थी और सप्ततिकाभाष्य भी इन्हीं की कृतियां हैं । प्रभावकचरित के अनुसार पाटण में चौलुक्य नरेश कर्ण (वि० सं० ११२१-४९ / ईस्वी सन् १०६५-९३) के शासनकाल में इनका स्वर्गवास हुआ।३२ विभिन्न पट्टावलियों में इनके स्वर्गवास का समय वि० सं० ११३५ / ईस्वी सन् १०७९ दिया गया है और पाटण के स्थान पर केपटवज में इनका स्वर्गवास होना बतलाया गया है।३४
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