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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास प्राप्त उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर भी चंद्रकुल (चंद्रगच्छ) के मुनिजनों की गुरु-परम्परा की संयुक्त तालिका बना पाना कठिन है । सम्भवतः इसका कारण यही प्रतीत होता है कि इस प्राचीन गच्छ की अनेक शाखायें थीं और समय-समय पर उन शाखाओं से नूतन गच्छों का उद्भव और विकास होता रहा, फिर भी कुछ शाखायें अलग-अलग रहते हुए भी स्वयं को चन्द्रगच्छीय ही कहती रहीं और वि० सं० की १७ वीं शती के प्रथम दशक तक इस गच्छ का स्वतन्त्र अस्तित्व प्रमाणित होता है। इसके पश्चात् इस गच्छ का उल्लेख न मिलने से यह अनुमान व्यक्त किया जा सकता है कि इस गच्छ के अनुयायी मुनिजन किन्हीं अन्य गच्छों में (सम्भवतः खरतरगच्छ, तपागच्छ अथवा अंचलगच्छ, जो चन्द्रकुल से ही उद्भूत हुए हैं) में सम्मिलित हो गये होंगे।
इस गच्छ के प्रमुख आचार्यों और ग्रन्थकारों का विवरण इस प्रकार
१. धनेश्वरसूरि - ये चन्द्रकुल के आचार्य वर्धमानसूरि (जिन्होंने चौलुक्यनरेश दुर्लभराज (वि० सं० १०६५-१०८०/ ई० सन् १००९-१०२४) की राजसभा में चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था) के प्रशिष्य तथा जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे । आचार्य पद की प्राप्ति के पूर्व इनका नाम जिनभद्रगणि था। जैसा कि इस निबन्ध के प्रारम्भ में ही कहा जा चुका है इन्होंने वि० सं० १०९५ / ई. सन् १०३९ में चन्द्रावती नगरी में सुरसुन्दरीचरित की रचना की। यह कृति प्राकृत भाषा में रची गयी है। इसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि साध्वी कल्याणमति के आदेश पर उन्होंने इसकी रचना की । इनके द्वारा रचित किन्हीं अन्य कृतियों का उल्लेख नहीं मिलता।
२. जिनचन्द्रसूरि - ये भी पूर्वोक्त आचार्य वर्धमानसूरि के प्रशिष्य और जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे । नवाङ्गवृत्तिकार अभयदेवसूरि इनके गुरु-भ्राता थे जिनके अनुरोध पर इन्होंने वि० सं०
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