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चन्द्रगच्छ
Ibid P. 28 ४. बृहद्गच्छीय आचार्य वादिदेवसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि द्वारा रचित
उपदेशमालाप्रकरणवृत्ति (रचनाकाल वि० सं० १२३८/ ईस्वी सन् ११८२) की प्रशस्ति . Muni Punyavijaya - Catalogue of Palm-Leaf Mss in The Shanti Natha Jaina Bhandar, Combay, GO. S. No. 149, Baroda 1966 A. D., Pp. 284-286. तपागच्छीय मुनिसुन्दरसूरि द्वारा रचित गुर्वावली (रचनाकाल वि० सं० १४६६ / ई० सन् १४१९) तपागच्छीय आचार्य हीरविजयसूरि के शिष्य धर्मसागरसूरि द्वारा रचित तपागच्छपट्टावली (रचनाकाल वि० सं० १६४८ / ई० सन् १५९२) । बृहद्गच्छीय मुनिमाल द्वारा रचित बृहद्गच्छगुर्वावली (रचनाकाल वि० सं० १७५१ । ई० सन् १६९५) राजगच्छ का संक्षिप्त इतिहास इसी पुस्तक में यथास्थान प्रकाशित है।
.। आसि सिरिबद्धमाणो पवड्डमामो गुण-सिरीए । २४०॥
एगो ताण जिमेसर-सूरी सूरोव्व उक्कड-पयावो। तस्स सिरि-बुद्धिसागर-सूरी य सहोयरो वीओ ॥ २४५ ॥
तडरुह-अवसडू महीरुहोह-उम्मूलणम्मि सुसमत्था। अज्भ्काय-पवर-तित्था पंचग्गंथी नई पवरा ।। २४८ ॥ तेसि सीस-वरो धणेसर-मुणी एयं कहं पायडं, चड्डावल्लि-पुरी ठिओ से-गुरुणो आणाए पाटंतरा । कासी विक्कम-वच्छरम्मि ए गए वाणंक-सुन्नोडुपे, मासे भदूवए गुरुम्मि कसिणे वीया धणिट्ठा-दिणे ॥ २४९ ।। सुरसुंदरीचरिय, संपा० मुनिश्री राजविजय, जैन विविध साहित्य ग्रंथमाला, ग्रन्थांक १, वाराणसी १९१६ ईस्वी, ग्रन्थकार की प्रशस्ति पृ० २८५-२८६.
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