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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास "श्रीखंडेल्लकगच्छसम्बन्धिश्वेताम्बरशान्तिसूरिविरचितमानतुंगाचार्यकविकृतभक्तामराख्यसूत्रवृत्तिः परिसमाप्ता।"
विक्रम सम्वत् की १६वीं शती के उत्तरार्ध में इसी गच्छ में हुए विजयसिंहसूरि के हर्षमूर्ति नामक विद्वान् शिष्य हुए, जिनके द्वारा वि० सं० १५९२ में मरु-गुर्जर भाषा में रची गयी गौतमपृच्छाचौपाई नामक कृति प्राप्त होती है । चन्द्रलेखाचौपाई और पद्मावतीचौपाई भी इन्हीं की कृतियाँ हैं ।११
विजयसिंहसूरि के काल में ही वि० सं० १५६१ श्रावण सुदि ११ को ब्रह्मेचा गोत्रीय श्रावक द्वारा सूत्रकृतांगसूत्र की प्रतिलिपि कराय गयी । अमृतलाल मगनलाल शाह ने इसकी प्रशस्ति का मूलपाठ दिया है, जो इस प्रकार है
संवत १५६१ वर्षे श्रावण सुदि ११ श्री भावडारगच्छे श्रीभावदेवसूरिः। तप्पट्टे श्रीविजयसिंहसूरिः ब्रह्मचागोत्रे संघवी हरा भार्या हासलदे पुत्र संघवी वीरा भार्या वील्हणदे पुत्र संघवी भोजकेन ज्ञान लखापितं दशसहस्रं आलोचननिमित्तं ॥
विक्रम सम्वत् की सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में इसी गच्छ में कनकसुन्दर नामक विद्वान मुनि हुए, जिन्होंने वि० सं० १६९७ में हरिश्चन्द्रराजारास की रचना की ।१३ यही इस गच्छ से सम्बद्ध अब तक उपलब्ध अंतिम साक्ष्य है।
__ जैसा कि प्रारम्भ में हम साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत देख चुके हैं इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को भावदेवसूरि, विजयसिंहसूरि, वीरसूरि और जिनदेवसूरि ये चार नाम पुनः पुनः प्राप्त होते हैं । इन्ही नामों का उल्लेख करने वाला वि० सं० १०८० का एक लेख मथुरा से प्राप्त हुआ है। जार्ज बुहलर ने इसकी वाचना दी है, जो कुछ संशोधन के साथ इस प्रकार है:
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