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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास ३. नागीस्वरी श्राविकस्या
प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन के आधार पर उन्होंने इस लेख को ईस्वी सन् की छठी शताब्दी के मध्य का माना है।
चन्द्रकुल का उल्लेख करनेवाला द्वितीय अभिलेखीय साक्ष्य भी वहीं से प्राप्त एक जिनप्रतिमा पर उत्कीर्ण है। शाह ने इसे ई० सन् ६०० से ६४० के मध्य का बतलाया है । लेख का मूलपाठ निम्नानुसार है :
१. ॐ देवधमय (धर्मोयं) । चद (न्द्र) कुलिकस्य ।। ९. सिहजि श्रा (व) स्य।
अकोटा से ही प्राप्त इसी काल की पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा पर भी इस कुल का उल्लेख मिलता है । शाह ने इस लेख का पाठ दिया है, जो इस प्रकार है:
१. देवधर्मोयं चन्द्रकुले दुरिंग २. णि श्राविकया रथवसति ३. काया
अकोटा से प्राप्त पार्श्वनाथ की एक अष्टतीर्थी धातु प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख में भी इस कुल का उल्लेख मिलता है । उन्होंने इस लेख को प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन के आधार पर ई. सन् की १० वीं शती के अंतिम चरण और ११ वीं शती के प्रथम चरण के बीच का माना है।" लेख का मूलपाठ इस प्रकार है :
ॐ चन्द्रकुले मोढगच्छेनिन्नट श्रावकस्य
इस लेख के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मोढगच्छ भी चन्द्रकुल की ही एक शाखा के रूप में अस्तित्व में आया ।
यद्यपि उक्त चारों प्रतिमालेखों में चन्द्रकुल के किसी आचार्य या मुनि का उल्लेख नहीं मिलता, फिर भी उनसे इस कुल की प्राचीनता सिद्ध होती है।
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