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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास आगमिकगच्छ, पिप्पलगच्छ, खरतरगच्छ, तपागच्छ और अंचलगच्छ आदि का भी समय-समय पर विभिन्न कारणों से चन्द्रकुल की एक शाखा के रूप में जन्म हुआ । इनमें से खरतरगच्छ, तपागच्छ और अंचलगच्छ आज भी विद्यमान हैं ।
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ईस्वीसन् की १२ वीं शताब्दी से नागेन्द्र, चन्द्र, निर्वृत्ति और विद्याधर ये चारों कुल गच्छों के रूप में उल्लिखित मिलते हैं । चन्द्रकुल से सम्बद्ध पर्याप्त संख्या में ग्रन्थप्रशस्तियाँ, पुस्तकप्रशस्तियाँ तथा प्रतिमालेख आदि मिले हैं और ये सब मिलकर ईस्वी सन् की छठी शताब्दी से लेकर ई० सन् की १६ वीं शताब्दी तक के हैं। यहां उक्त साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है । अध्ययन की सुविधा के लिये सर्वप्रथम साहित्यिक साक्ष्यों और तत्पञ्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत है :
साहित्यिक साक्ष्य
चन्द्रकुल से सम्बद्ध पर्याप्त संख्या में प्रकाश में आ चुके साहित्यिक साक्ष्यों के दो वर्ग किये जा सकते हैं । प्रथम वर्ग के अन्तर्गत इस कुल एवं गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रणीत कृतियों की प्रशस्तियों को रखा गया है । द्वितीय वर्ग में उक्त गच्छ के विभिन्न मुनिजनों के उपदेश से श्रावकों द्वारा लिखवाई गयी या स्वयं मुनियों द्वारा ही लिखी गयी प्राचीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की प्रतिलिपि की प्रशस्तियों को रखा गया है। दोनों ही प्रकार की प्रशस्तियों में प्राय: समान रूप से रचनाकार या प्रतिलिपिकार मुनि की गुरु-परंपरा, रचनाकाल या लेखनकाल आदि का उल्लेख मिलता है । यहां केवल उन्हीं कृतियों को रखा गया है जिनकी प्रशस्तियां इस गच्छ के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । उक्त प्रशस्तियों को क्रमशः ग्रन्थप्रशस्ति और पुस्तकप्रशस्ति के नाम से जाना जाता है | इनका अलग अलग-विवरण इस प्रकार है :
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