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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास मूलकर्ता के ग्रन्थ की प्रतिलिपि की दाताप्रशस्तिया एवं बड़ी संख्या में इस गच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं के लेख मिले हैं, जिनके आधार पर इस गच्छ के इतिहास का एक सर्वेक्षण प्रस्तुत है
कोरंटगच्छ का उल्लेख करने वाला सबसे प्राचीन साहित्यिक साक्ष्य हैं महावीरचरित्र (त्रि. श० पु०, पर्व १०) की वि० सं० १३६८ में की गयी प्रतिलिप की दाताप्रशस्ति', जिसमें कोलापुर (?) निवासी श्रावक मूलू
और उसके परिजनों द्वारा अपनी माता के श्रेयार्थ अपने गुरु, कोरंटगच्छीय कृष्णर्षि के शिष्य, चन्द्रकुल के ध्वज समान आचार्य नन्नसूरि को वाचनार्थ प्रदान करने का उल्लेख है।
दूसरा साहित्यिक साक्ष्य है त्रि. श. पु. च० के द्वितीय सर्ग (अजितनाथचरित्र) की वि० सं० १४३६ में तैयार की गयी प्रतिलिपि की दाताप्रशस्ति । ९ श्लोकों की इस प्रशस्ति में प्रथम ४ श्लोकों में दाता श्रावक देवसिंह और उसके परिवार का परिचय और अन्तिम ५ श्लोकों में श्रावक के गुरु एवं पुस्तक प्राप्तकर्ता सावदेवसूरि के शिष्य आचार्य नन्नसूरि का प्रशंसात्मक विवरण है।
तीसरा और अन्तिम साहित्यिक साक्ष्य है राजप्रश्नीयसूत्र की वि० सं० १६१९ में पूर्ण की गयी प्रतिलिपि की दाताप्रशस्ति । इसमें कोरंटगच्छीय वाचक आसदेव के पट्टधर भोजदेव की परम्परा में हुए वाचक देवप्रभ द्वारा जोधपुर नरेश महाराज मालदेव के उत्तराधिकारी चन्द्रसेन के राज्यकाल में उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि करने का उल्लेख है। प्रशस्ति में कोरंटगच्छीय वाचक परम्परा की गुर्वावली दी गयी है जो इस प्रकार है
- वाचक आसदेव
वाचक भोजदेव
वाचक जयतिलक
वाचक देवकलश
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