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उपकेश गच्छ
२४७ ___ जहां तक द्विवंदणीकगच्छीय प्रथम देवगुप्तसूरि का सम्बन्ध है, चूंकि उनके द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें वि०सं० १४७९ से १५०८ तक की हैं और मुनिपतिचरित्र की एक प्रति में इस कृति का रचनाकाल वि०सं० १४८५ दिया गया है, अत: समसामयिकता के आधार पर मुनिपतिचरित्र के कर्ता द्विवंदणीकगच्छीय सिंहकुल द्विवंदणीकगच्छीय देवगुप्तसूरि 'प्रथम' (वि०सं० १४७९-१५०८) के ही शिष्य कहे जा सकते है और यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि मुनिपतिचरित्र की द्वितीय प्रति में उल्लिखित रचनाकाल वि० सं० १५५० अवश्य ही भ्रामक है और यह लिपिकार की भूल का परिणाम है।
विक्रम की १६वीं शती के पश्चात् उपकेशगच्छ की ककुदाचार्यसंतानीय तथा द्विवंदणीकगच्छ आदि शाखाओं से सम्बद्ध साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों का नितान्त अभाव है, अतः यह कहा जा सकता है कि इस समय (१६वीं शती के पश्चात्) तक उपकेशगच्छ की उक्त शाखाओं का अस्तित्व समाप्त हो गया था । उपकेशगच्छ की जो शाखा २०वीं शती तक अस्तित्व में रही, वह निश्चय ही इन शाखाओं से भिन्न रही है।
सिद्धाचार्यसंतानीय मुनिजनों की परम्परा आगे चलकर १६वीं शती में संभवतः अपना प्रभाव कम होने पर द्विवंदणीकगच्छ [उपकेशगच्छ की एक शाखा, जिसका वि० सं० १२६६ में आविर्भाव हुआ] में सम्मिलित हो गयी प्रतीत होती है, क्योंकि १६वीं शती के कई प्रतिमालेखों में आचार्य के नाम के साथ द्विवंदणीकगच्छीयसिद्धाचार्यसंतानीय यह विशेषण जुड़ा हुआ मिलता है।
एक संभावना यह भी है कि सिद्धसूरि, जिनसे वि० सं० १२६६/ ई० सन् १२१० में द्विवंदणीकशाखा का उदय हुआ, की शिष्य सन्तति अपने गुरु के नाम पर सिद्धाचार्यसंतानीय एवं पार्श्वनाथ तथा महावीर - दोनों की वन्दना करने के कारण द्विवंदनीक कहलायी । संभवतः यही कारण है कि उपकेशगच्छ की इस शाखा के प्रतिमा लेखों में कहीं द्विवंदणीकगच्छ और
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