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काम्यक गच्छ
उक्त प्रशस्ति के अनुसार वि० सं० ११०० में महेश्वरसूरि का निधन हुआ था, अत: अपनी मृत्यु के लगभग २५ पूर्व अर्थात् वि० सं० १०७५ के आसपास वे अपने गुरु विष्णुसूरि के पट्टधर हुए होंगे । इस आधार पर विष्णुसूरि का काल वि० सं० १०५० १०७५ के आसपास माना जा सकता है।
२.
I
साधु सर्वदेव [वि० सं० ११०० में प्रशस्ति अभिलेख उत्कीर्ण कराने वाले ]
निर्वृतिकुल की यह शाखा कब और किस कारण अस्तित्व में आयी, इसके आदिम आचार्य कौन थे ? इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है । मात्र स्थानांगसूत्र' में 'कामढिक' (कामर्धिक) गण का और कल्पसूत्र (पर्युषणाकल्प) की 'स्थविरावली' में 'कामड्डियकुल' का उल्लेख मिलता है। इनका काम्यकगच्छ से सम्बन्ध रहा है ? अथवा नहीं रहा यह प्रश्न प्रमाणों के अभाव में अभी अनुत्तरित ही रह जाता है ।
३.
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संदर्भ सूची :
१.
विमलाचरण लाहा - प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, लखनऊ १९७२ ई० सन्, पृष्ठ ५२९.
J. F. Fleet:, ‘Bayana Stone Inscription of AdhiRaja Vijaya, Samvat 1100', Indian Antiquary, Vol. 14, Pp. 8-10.
वही
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श्वेताम्बर आम्नाय के चार प्रमुख कुलों में निवृत्तिकुल भी एक है । अन्य कुलों की भांति यह कुल भी पूर्वमध्यकाल में एक गच्छ के रूप में प्रसिद्ध हुआ और इससे भी कुछ अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ । काम्पयकगच्छ भी उन्हीं में से एक है। समणस्स णं भगवतो महावीरस्स णव गणा हुत्था, तं जहा गोदासगणे, उत्तरबलिस्सहगणे, उद्देहगणे, चारणगणे, उद्दवाइयगणे, विस्सवाइयगणे, कामड्डियगणे, मानवगणे, कोडियगणे ।
स्थानांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, जिनागम ग्रन्थमाला, ग्रंथांक ७, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर १९८१ ई०, ९।२९, पृष्ठ ६७०.
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