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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास वि०सं० १२६१ के प्रतिमालेख में उल्लिखित सिद्धसूरि संभवतः यही सिद्धसूरि हैं । पट्टावली में कहा गया है कि वि० सं० १२५२ में तुरुष्कों ने उपकेशपुर पर आक्रमण किया और यहाँ स्थित महावीर जिनालय को क्षतिग्रस्त कर दिया। गच्छनायक सिद्धसूरि इस समय पाटण में थे, बाद में वि० सं० १२५५ में उन्होंने इसका जीर्णोद्धार कराया। इसी पट्टावली के अनुसार सिद्धसूरि अपना पट्टधर नियुक्त करने के पूर्व ही स्वर्गस्थ हो गये, अतः श्रीसंघ ने वि०सं० १२७८ में उपाध्याय पदधारक मुनि वर्धमान को देवगुप्तसूरि के नाम से गच्छनायक बनाया।१९
उपकेशगच्छ की द्वितीय पट्टावली के अनुसार महावीर और पार्श्व; दोनों की वन्दना करने के कारण वि०सं० १२६६ में उपकेशगच्छ में सिद्धसूरि से द्विवंदनीकशाखा का उदय हुआ°
रस-रस-दिनकर (१२६६) वर्षे, मासे मधुमाधवे च संज्ञायाम् । जाता द्विवंदनीकाः, श्रीमत्सिद्धसूरिवराः ॥
उक्त विवरण से यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि गच्छनायक गुरु द्वारा गच्छ की परम्परागत मान्यता के विपरीत नवीन मान्यता स्थापित करने के कारण गच्छ में मतभेद हो गया, जिससे सिद्धसूरि अपने जीवनकाल में अपना पट्टधर भी नियुक्त न कर सके, अन्त में श्रीसंघ ने गच्छ की प्राचीन मान्यताओं में श्रद्धा रखने वाले मुनिजनों की सम्मति से वि० सं० १२७८ में उपाध्याय वर्धमान को देवगुप्तसूरि के नाम से गच्छनायक के पद पर प्रतिष्ठित किया।
प्रथम पट्टावली के अनुसार देवगुप्तसूरि का वि०सं० १३३० में ८४ वर्ष की आयु में निधन हुआ ।२१ अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर ककुदाचार्यसंतानीय देवगुप्तसूरि द्वारा वि०सं० १३१४-१३२३ में प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं, अतः समसामयिकता के आधार पर उक्त दोनों देवगुप्तसूरि एक ही आचार्य माने जा सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है
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