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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास सिंहासनद्वात्रिंशिका (रचनाकाल वि०सं० १४८४/ईस्वी सन् १४२८) के रचनाकार सागरचन्द्रसूरि, वस्तुपाल-तेजपाल रास (रचनाकाल वि०सं०१४८४/ ईस्वी सन् १४२८), विद्याविलासपवाडो आदि के कर्ता प्रसिद्ध ग्रन्थकार हीरानन्दसूरि, कालकसूरिभास के कर्ता आनन्दमेरु इसी गच्छ के थे। इस गच्छ की दो अवान्तर शाखाओं का पता चलता है - १. त्रिभवीयाशाखा २. तालध्वजीयशाखा
अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर वि०सं० १७७८ तक इस गच्छ का अस्तित्व सिद्ध होता है।
पूर्णिमागच्छ या पूर्णिमापक्ष - मध्ययुगीन श्वेताम्बर गच्छों में पूर्णिमागच्छ का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। चन्द्रकुल के आचार्य जयसिंहसूरि के शिष्य चन्द्रप्रभसूरि द्वारा पूर्णिमा को पाक्षिक पर्व मनाये जाने का समर्थन करने के कारण उनकी शिष्य सन्तति पूर्णिमापक्षीय या पूर्णिमागच्छीय कहलायी। वि०सं० ११४९ या ११५९ में इस गच्छ का आविर्भाव माना जाता है । इस गच्छ में आचार्य धर्मघोषसूरि, देवसूरि, चक्रेश्वरसूरि, समुद्रघोषसूरि, विमलगणि, देवभद्रसूरि, तिलकाचार्य, मुनिरत्नसूरि, कमलप्रभसूरि, महिमाप्रभसूरि आदि कई प्रखर विद्वान् आचार्य हो चुके हैं । इस गच्छ की कई आवन्तर शाखायें अस्तित्व में आयीं, जैसे - प्रधानशाखा या ढंढेरियाशाखा, सार्धपूर्णिमाशाखा, कच्छोलीवालशाखा, भीमपल्लीयाशाखा, वटपद्रीयाशाखा, बोरसिद्धीयाशाखा, भृगुकच्छीयाशाखा, छापरियाशाखा आदि । पूर्णिमागच्छ के मुनिजनों द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियों, उनकी प्रेरणा से लिपिबद्ध कराये गये प्राचीन ग्रन्थों की दाताप्रशस्तियों एवं पट्टावलियों में इस गच्छ के इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित है। यही बात इस गच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में प्रतिमालेखों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।
ब्रह्माणगच्छ - अर्बुदमण्डल के अन्तर्गत वर्तमान वरमाण (प्राचीन ब्रह्माण) नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है । इस गच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं जो वि०सं०११२४ से १६वीं शती के अन्त तक के
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