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आगमिक गच्छ/प्राचीन त्रिस्तुतिक गच्छ का संक्षिप्त इतिहास
पूर्वमध्यकाल में श्वेताम्बर श्रमणसंघ का विभिन्न गच्छों और उपगच्छों में विभाजन जैन धर्म के इतिहास की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना है । चन्द्रकुल (बाद में चन्द्रगच्छ) से अनेक छोटी-बड़ी शाखाओं (गच्छों) का प्रादुर्भाव हुआ और ये शाखायें पुन: कई उपशाखाओं में विभाजित हुईं। चन्द्रकुल की एक शाखा (वडगच्छ /बृहद्गच्छ) के नाम से प्रसिद्ध हुई । वडगच्छ से वि०सं० १९४९ में पूर्णिमागच्छ का प्रादुर्भाव हुआ और पूर्णिमागच्छ की एक शाखा वि० सं० की १३वीं शती से आगमिकगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई ।
पूर्णिमागच्छ के प्रवर्तक आचार्य चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य आचार्य शीलगुणसूरि इस गच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं । इस गच्छ में यशोभद्रसूरि, सर्वाणंदसूरि, विजयसिंहसूरि, अमरसिंहसूरि, हेमरत्नसूरि, अमररत्नसूरि, सोमप्रभसूरि, आणंदप्रभसूरि, मुनिरत्नसूरि, आनन्दरत्नसूरि आदि कई विद्वान् एवं प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अपने साहित्यिक और धार्मिक क्रियाकलापों से श्वेताम्बर श्रमणसंघ को जीवन्त बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान की ।
पूर्णिमागच्छीय आचार्य शीलगुणसूरि और उनके शिष्य देवभद्रसूरि द्वारा जीवदयाणं तक का शक्रस्तव और ६७ अक्षरों का परमेष्ठीमन्त्र, तीन स्तुति से देववन्दन आदि बातों में आगमपक्ष के समर्थन से वि० सं० १२१४ या १२५० में आगमिकगच्छ अपरनाम त्रिस्तुतिकमत का प्रादुर्भाव हुआ
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