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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास
है जो जीरावला पार्श्वनाथ के नाम से जाना जाता है । बृहद्गच्छ पट्टावली में उसकी एक शाखा के रूप में इस गच्छ का उल्लेख मिलता है । जीरावला नामक स्थान से सम्बद्ध होने के कारण यह शाखा जीरापल्लीगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई । इस गच्छ से सम्बद्ध कई प्रतिमालेख मिलते हैं, जो वि० सं० १४०६ से वि०सं० १५१५ तक के हैं। इसके सम्बन्ध में विशेष अध्ययन आगे के अध्याय में दिया गया है ।
तपागच्छ चैत्रगच्छीय आचार्य भुवनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य और देवभद्रसूरि के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि को आघाट में उग्र तप करने के कारण वि० सं० १२८५/ ईस्वी सन् १२२९ में 'तपा' विरुद् प्राप्त हुआ, इसी कारण उनकी शिष्य सन्तति तपागच्छीय कहलायी । अपने जन्म से लेकर आज तक इस गच्छ की अविच्छिन्न परम्परा विद्यमान है और इसका प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है । इस गच्छ में अनेक प्रभावक आचार्य और विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं और आज भी हैं । इस गच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होते हैं । अन्य गच्छों की भाँति इस गच्छ की भी कई अवान्तर शाखायें अस्तित्व में आयी, जैसे- बृहद्पौषालिक, लघुपौषालिक, विजयानंदसुरिशाखा, विमलशाखा, विजयदेवसूरिशाखा, सागरशाखा, रत्नशाखा, कमलकलशशाखा, कुतुबपुराशाखा, निगमशाखा आदि ।
थारापद्रगच्छ- प्राक् मध्ययुगीन और मध्ययुगीन निर्ग्रन्थ धर्म के श्वेताम्बर आम्नाय के गच्छों में इस गच्छ का महत्त्वपूर्ण स्थान है । थारापद्र (वर्तमान थराद, बनासकांठा मंडल उत्तर गुजरात) नामक स्थान से इस गच्छ का प्रादुर्भाव हुआ । इस गच्छ में ११वी शती के प्रारम्भ में हुए आचार्य पूर्णभद्रसूरि ने वटेश्वर क्षमाश्रमण को अपना पूर्वज बतलाया है, परन्तु इस गच्छ के प्रवर्तक कौन थे, यह गच्छ कब अस्तित्व में आया, इस बारे में वे मौन हैं । इस गच्छ में ज्येष्ठाचार्य, शांतिभद्रसूरि 'प्रथम', सिद्धान्तमहोदधि सर्वदेवसूरि, शान्तिभद्रसूरि 'द्वितीय', पूर्णभद्रसूरि, सुप्रसिद्ध पाइयटीका के रचनाकार वादिवेताल शान्तिसूरि, विजयसिंहसूरि आदि अनेक प्रभावक और विद्वान् आचार्य हुए हैं । षडावश्यकवृत्ति (रचनाकाल वि० सं० १९२२) और * मेरे द्वारा लिखित इस गच्छ का इतिहास पुस्तक के रूप में ईस्वी सन् २००० में प्रकाशित हो चुका है ।
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