Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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अभिजया-अभिराम
इसीलिए इन्हें यह नाम ग्यारहवें मनु ) को जन्म
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को चन्द्रमा दिखा-दिखा कर क्रीड़ा की थी, प्राप्त हुआ था । ये चन्द्राभ नाम के पुत्र देकर स्वर्ग गये । मपु० ३.१२९-१३३, हपु० ७.१६१-१६३ (२) अन्धकवृष्णि और उसकी रानी सुभद्रा के दस पुत्रों में नवां पुत्र । इसके चन्द्र, शशांक, चन्द्राभ, शशी, सोम और अमृतप्रभ ये छः पुत्र थे । हपु० १८.१२-१४, ४८.५२
(३) भद्र का पुत्र । इसने विध्याचल पर चेदिराष्ट्र की स्थापना की थी और शुक्तिमती नदी के तट पर शुक्तीमती नगरी बसायी थी । इसका उग्रवंश में उत्पन्न वसुमति से विवाह हुआ था तथा उससे वसु नाम का पुत्र हुआ था जिसने क्षीरकदम्ब गुरु से दीक्षा प्राप्त की थी । हपु० १७.३५-३९
अभिजया - समवसरण के सप्तपर्ण वन में स्थित छः वापियों में एक
वापी । पु० ५७.३३ दे० आस्थानमण्डल
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अभिनन्दन – (१) अवसर्पिणी काल के चौथे दु:षमा- सुषमा काल में उत्पन्न हुए चौथे तीर्थंकर एवं शलाका पुरुष । मपु० २.१२८, १३४, ०१.६, वीव० १८.१०१-१०५ सीसरे पूर्वभव में ये जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित मंगलावती देश में रत्नसंचय नगर के नृप थे, महाबल इनका नाम था । विमलवाहन गुरु से संयमी होकर इन्होंने सोलह भावनाओं का चिन्तन किया जिससे इन्हें तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हुआ । अन्त में ये समाधिमरण कर विजय नाम के प्रथम अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुए। मपु० ५०.२-३, १०-१३ पद्मपुराण में इनके पूर्वभव का नाम विपुलवाहन, नगरी सुसीमा तथा प्राप्त स्वर्ग का नाम वैजयन्त बताया गया है । पपु० २०.११, ३५ विजय स्वर्ग में च्युत होकर ये जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित अयाध्या नगरी में वैशाख मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि तथा सातवें शुभ पुनर्वसु नक्षत्र में सोलह स्वप्न पूर्वक काययपगोत्री राजा स्वयंवर की रानी सिद्धार्थ के गर्भ में आये और तीर संभवनाथ के दस लाख करोड़ सागर वर्ष का अन्तराल बीत जाने पर माघ मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी के दिन अदिति योग में जन्मे । जन्म से ही ये तीन ज्ञान के धारी थे, पचास लाख पूर्व प्रमाण उनकी आयु थी। शरीर तीन सौ पचास धनुष ऊँचा तथा बाल चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त था। साढ़े बारह लाख पूर्व कुमारावस्था का समय निकल जाने पर इन्हें राज्य मिला, तथा राज्य के साढ़े छत्तीस लाख पूर्व काल बीत जाने पर और आयु के आठ पूर्वाङ्ग शेष रहने पर मेघों की विनश्वरता देख ये विरक्त हुए । इन्होंने हस्तचित्रा यान से अग्रोद्यान जाकर माघ शुक्ला द्वादशी के दिन अपराह्न वेला में एक हज़ार प्रसिद्ध राजाओं के साथ जिनदीक्षा धारण की। उसी समय इन्हें मनःपर्ययज्ञान हुआ । इनकी प्रथम पारणा साकेत में इन्द्रदत्त राजा के यहाँ हुई । छद्मस्थ अवस्था में अठारह वर्ष मौन रहने के पश्चात् पौष शुक्ल चतुर्दशी के दिन सायं वेला में असन वृक्ष के नीचे सातवें ( पुनर्वसु नक्षत्र में ये केवली हुए। तीन लाख मुनि, तीन लाख तीस हजार छः सौ आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्रावि
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जैन पुराणकोश : २७ काएँ इनके संघ में थीं। वज्रनाभि आदि एक सौ तीन गणधर थे । ये बारह सभाओं के नायक थे । विहार करते हुए ये सम्मेदगिरि आये और वहाँ प्रतिमायोग पूर्वक इन्होंने वैशाख शुक्ल षष्ठी के दिन प्रातः वेला में पुनर्वसु नक्षत्र में अनेक मुनियों के साथ परमपद (मोक्ष) प्राप्त किया । मपु० ५०.२ ६९, पपु० २०.११-११९, पु० ३०.१५१-१८५, ३४१-३४९
(२) पातकीखण्ड द्वीप की पूर्व दिशा में स्थित पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधित देश के अयोध्या नगर के राजा जयवर्मा के दीक्षागुरु । मपु० ७.४०-४२
(३) चारणऋद्धिधारी योगी ( मुनि) इनके साथ जगन्नन्दन नाम के योगी थे। ये दोनों मनोहर वन में आये थे जहाँ ज्वलनजटी ने इनसे सम्यग्दर्शन ग्रहण किया था। पापु० ४.१२-१५
(४) अन्धकवृष्णि और सुभद्रा का नवम पुत्र । मपु० ७०.९५-९६ (५) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत नृषभदेव एक नाम मधु० का २५.१६७
अभनिम्बित - इस नाम के एक मुनि श्रुतिरत राजा कुलंकर ने इनसे दीक्षा ली थी । पपु० ८५.५२-५३, ५६
• आस्थानमण्डल
अभिनन्दिनी - समवसरण के अशोक वन की एक वापी । हपु० ५७.३२ दे० अभिनयाश्रय नृत्य के तीन भेदों में दूसरा भेद । पपु० २४.६ दे० अंगहाराचप अभिमन्यु — अर्जुन की दो रानियाँ थीं द्रौपदी और सुभद्रा । यह सुभद्रा का पुत्र था। इनके पाँच भाई और थे वे द्रौपदी से उत्पन्न हुए थे तथा पांचाल कहलाते थे। इसने कृष्ण और जरासन्ध के युद्ध में गांगेय (भीष्म) का महाध्वज तोड़ डाला था और उनके सारथी और दो अश्वों को मार गिराया था । मपु० ७२, २१४, पापु० १६.१०१, १७९-१८० इसने कलिंग के तथा राजा के हाथी को मार दिया था, कर्ण का गर्व नष्ट किया था, द्रोण को जर्जरित किया था और जिन जिन ने इससे युद्ध किया उन सबको इसने पराजित किया । अश्वत्थामा को भी इसने युद्ध में विमुख किया था। अन्त में जपाई कुमार द्वारा गिरा दिये जाने पर शरीर से मोह तोड़कर इसने सल्लेखना पूर्वक देह त्यागा और स्वर्ग में २०.१६-३६ अभिमाना- अतिवंश नामक वंश में उत्पन्न अग्नि और उसकी स्त्री मानिनी की पुत्री | धान्य ग्राम के नोदन नामक ब्राह्मण से विवाहित । शील रहित होने से इसके पति ने इसे त्याग दिया था । पश्चात् इसने कररुह नामक नृप को अपना पति बनाया था। पपु० ८०.१५५-१६७ अभिराम जम्बूद्वीप में पश्चिम विदेह क्षेत्र के चक्रवर्ती राजा अचल तथा उसकी रानी रत्ना का पुत्र । दीक्षा धारण करने को उद्यत देखकर इसके पिता ने इसका विवाह कर दिया और इसे ऐश्वर्य में योजित कर दिया। तीन हजार स्त्रियों के होते हुए भी यह मुनि के लिए उत्कण्ठित रहता था । यह असिधारा व्रत पालता और स्त्रियों क
देव हुआ । पापु०
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