Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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अपराजिता - अप्रत्तसंयत
(१७) समवसरण के तीसरे कोट की उत्तर दिशा में निर्मित द्वार के आठ नामों में एक नाम । हपु० ५७.३, ५६ १६ अपराजिता - ( १ ) बलभद्र पद्म की जननी । पपु० २०.२३८-२३९ (२) तीर्थंकर मुनिसुव्रत का दीक्षा शिविका । मपु० ६७.४०, पपु० २१.३६
(३) दर्भस्थल नगर के राजा सुकोशल और उसकी रानी अमृतप्रभावा की पुत्री, दशरथ की पत्नी, राम की जननी । अन्त में यह मरकर आनत स्वर्ग में देव हुई थी । पपु० २२.१७० - १७२, २५.१९-२२, १२३. ८०-८१
(४) उज्जयिनी के राजा विजय की भार्या । मपु० ७१.४४३ (५) महावत्सा देश की राजधानी । मपु० ६३.२०८-२१६, हपु० ५.२४७, २६३
(६) वाराणसी के राजा अग्निशिख की रानी, बलभद्र नन्दिमित्र की जननी । मपु० ६६.१०२-१०७
(७) रुचकवर द्वीप में स्थित इसी नाम के पर्वत पर पूर्व दिशा में वर्तमान अष्टकूटवासिनी देवी ह० ५.६९९, ७०४०००५
(८) रुचकवर पर्वत की वायव्य दिशा में स्थित रत्नोच्चयकूटवासिनी देवी । हपु० ५.६९९, ७२६
(९) समवसरण के सप्तपर्ण वन की वापिका । हपु० ५७.३३
(१०) नन्दीश्वर द्वीप के दक्षिण में स्थित अंजनगिरि की एक वापी । हपु० ५.६६० अपरान्त अग्रायणीपूर्व की चौदह वस्तुओं में द्वितीय वस्तु पु० १०.७७, ७८ ३० ग्रायणीयपूर्व
अपरान्तक--- भगवान् वृषभदेव के काल में इन्द्र द्वारा निर्मित पश्चिमी समुद्र तट पर स्थित देश । मपु० १६.१४१-१४८, १५५
अपरिग्रह महाव्रत - पाँचवाँ महाव्रत। दस प्रकार के बाह्य तथा चौदह प्रकार के अन्तरंग परिग्रह से विरक्त होना । हपु० २.१२१, पापु०
९.८७
अपर्याप्तक- घटीयंत्र के समान निरन्तर भ्रमणशील ऐसा जीव जो अपनी पर्याप्तियों को पूरा नहीं कर पाता। मपु० १७.२४, पपु० १०५. १४५-१४६
अपवर्ग - मोक्ष । हपु० १०.९-१० अपवर्तिका - कंठ का आभूषण । निश्चित प्रमाण से युक्त स्वर्ण, मणि, माणिक्य, और मोतियों द्वारा बीच में अन्तर देते हुए गूंथी गयी माला । मपु० १६.४९, ५१
अपात्र
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- व्रत शील आदि से रहित, कुदृष्टिवान्, दाता एवं दत्त वस्तु को दूषित करने वाला व्यक्ति । ऐसे कुपात्र को दान देकर दाता कुमानुष योनि में जन्मता है । मपु० २०.१४१-१४३ हपु० ७.११४ अपाप - भविष्यत् काल के ग्यारहवें तीर्थंकर । मपु० ७६.४७८-४८१ अपायविचय- धर्म - ध्यान के दस भेदों में प्रथम भेद । अपाय का अर्थ त्याग है, और विचय का अर्थ मीमांसा है। मन, वचन और काय इन तीन योगों की प्रवृत्ति ही संसार का कारण है, अतः इन प्रवृत्तियों का किस प्रकार त्याग हो और जीव संसार से कैसे मुक्त हो ऐसा
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जैन पुराणको २५
शुभ लक्ष्या से अनुरंजित चिन्तन अपाप-विषय है मपु० २१.१४१, हपु० ५६.३७-४० दे० धर्मध्यान
अपार - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २४.४२ अपारधी -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.२१२ अपारि - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४२ अपुनर्भव - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०० अपूप - एक भोज्य पदार्थ पूआ । मपु० ८.२३६ अपूर्वकरण चौदह गुणस्थानों में आठवां गुणस्थान इस गुणस्थान में जीव के प्रतिक्षण अपूर्व - अपूर्व ( नये-नये) परिणाम होते हैं । इस करण मैं अधःकरण के समान जीव स्थिति और अनुभाग बन्ध तो कम करता ही रहता है साथ ही वह स्थिति और अनुभाग बन्ध का संक्रमण और निर्जरा करता हुआ उन दीनों के अग्रभाग को भी नष्ट कर देता है । ऐसे जीव उपशमक और क्षपक दोनों प्रकारों के होते हैं । मपु० २०. २५२-२५५, हपु० ३.८०, ८३, १४२ दे० गुणस्थान अपृथग्विक्रिया - अशुभ कर्म के उदय से नारकियों को प्राप्त अत्यन्त विकृत, घृणित तथा कुरूप विक्रिया मपु० १०.१०२ अपोह— ओता के आठ गुणों में एक गुण व वस्तुओं को छोड़ना । मपु० १.१४६
अप्काय — एकेन्द्रिय जलकायिक जीव । ये तृण के अग्रभाग पर रखी जल की बूंद के समान होते हैं । हपु० १८.५४, ७० अप्रणतिवाक् — सत्यप्रवाद नाम के अंग में कथित बारह प्रकार की
भाषाओं में एक भाषा । यह अपने से अधिक गुणवालों को नमस्कार नहीं करती । हपु० १०.९१-९५ अप्रतर्क्यात्मा -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१८०
अप्रतिघ - (१) समवसरण की सभागृह के आगे विद्यमान तृतीय कोट संबंधी दक्षिण द्वार के आठ नामों में आठवाँ नाम । हपु० ५७.५६-५८ दे० आस्थानमण्डल
(२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०१ अप्रतिघात - राम का सिंहरथवाही सामन्त । पपु० ५८.१०-११ अप्रतिघातका मिनी — अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज को प्राप्त एक विद्या ।
मपु० ६२.३९१-४००
अप्रतिष्ठ -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.२०३ अप्रतिष्ठान -- सातवीं महातमः प्रभा नरक भूमि का इन्द्रक बिल । हपु० ४.८४, १५० दे० महातमः प्रभा अप्रत्याख्यानक्रिया —आस्रवकारी पांच क्रियाओं में एक क्रिया-कर्मोदय के वशीभूत होकर पापों से निवृत्त नहीं होना । क्रोध, मान, माया, और लोभ के भेद से इसके चार भेद होते हैं । मपु० ८.२२४-२४१, पु० ५८.८२ दे० साम्परायिकआस्रव अप्रमत्तसंयत-सात गुणस्थान इस गुणस्थान के जीव हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से विरत होते हैं और उनकी भावनाएं विशुद्ध होती हैं। मपु० २०.२४२, पु० ३.८१-८९ दे० गुणस्थान
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