Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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अन्द्रकपुर-अपध्यान
जैन पुराणकोश : २३
अन्द्रकपुर-एक नगर । साधुओं के आहारदान का प्रेमी धारण इसी
नगर का निवासी था। पपु० ३१.२६-२७ ।। अन्धकवृष्टि-हरिवंश में उत्पन्न, शौर्यपुर नगर के राजा सूरसेन का पौत्र और राजा शूरवीर तथा उसकी रानी धारिणी का पुत्र, नरवृष्टि का अग्रज । हरिवंशपुराण में अन्धकवृष्टि को अन्धकवृष्णि कहा है । रानी सुप्रभा से उसके दस पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई थीं। उसके पुत्रों के नाम थे-समुद्रविजय, अक्षोभ्य, स्तिमितसागर, हिमवान्, विजय, अचल, धारण, पूरण, अभिचन्द्र और वसुदेव तथा पुत्रियाँ थीं कुन्तो और मद्री। महापुराण में अक्षोभ्य का नाम नहीं आया है । वहाँ पूरितार्थीच्छ नाम मिलता है जो हरिवंश पुराण में अप्राप्त है । हरिवंशपुराण में जिसे अभिचन्द्र कहा गया है महापुराण में उसे अभिनन्दन नाम दिया गया है । इसी प्रकार मद्री को माद्री कहा गया है । इसके छोटे भाई के दो नाम थे-नरवृष्टि और भोजकवृष्णि । उग्रसेन, देवसेन और महासेन इसके पुत्र तथा गान्धारी इसकी पुत्री थी। मपु० ७०.९३-१०१ हपु० १८.९-१६ अन्त में सुप्रतिष्ठ केवलो से अपने पूर्वभव सुनकर इसने समुद्रविजय को राज्य दे दिया और अन्य अनेक राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। उग्र तपस्या करके इसने मोक्ष प्राप्त कर लिया। मपु० ७०.२१२-२१४, हपु० १८. १७६, १७८, पापु० ११.४ चौथे पूर्वभव में यह अयोध्या निवासी रुद्रदत्त नाम का ब्राह्मण था, तीसरे पूर्वभव में रौरव नरक में जन्मा, नरक से निकलकर दूसरे पूर्वभव में हस्तिानापुर में ब्राह्मण कापिष्ठलायन का गौतम नामक पुत्र हुआ और पचास हजार वर्ष के कठोर तप के प्रभाव से मरण कर पहले पूर्वभव में यह देव हआ। हपु० १८.७८-१०९, महापुराण में इसके अनेक बार तिर्यंच योनि में जन्म लेने और मरकर अनेक बार नरक में जाने के उल्लेख है। मपु०
७०.१४५-१८१ अन्धकान्तक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.७३ अन्धवेल-तीर्थंकर महावीर के दसवें गणधर । मपु० ७४.३७४,
वीवच० १९.२०६-२०७ आन्ध्र-(१) धूमप्रभा पृथिवी के चतुर्थ प्रस्तारक का इन्द्र क बिल ।
इसकी चारों दिशाओं में चौबीस, विदिशाओं में बीस कुल चवालीस श्रेणिबद्ध बिल है । हपु० ४.१४१, दे० धूमप्रभा
(२) दक्षिण का एक देश । लवणांकुश ने यहाँ के राजा को पराजित किया था। पपु० १०१.८४-८६ अन्ध्रकरूढि-वानरवंशी राजा प्रतिचन्द्र का कनिष्ठ पुत्र, किष्किन्ध का
अनुज । इसके पिता ने किष्किन्ध को राज्यलक्ष्मी और इसे युवराज पद देकर निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण की थी। आदित्यपुर के राजा विद्यामन्दर की पुत्री श्रीमाला ने अपने स्वयंवर में रथनपुर के राजपुत्र विजयसिंह को वरमाला न पहिना कर किष्किन्ध के गले में माला डाली थी। श्रीमाला के लिए विजयसिंह ने युद्ध किया था किन्तु इसने उसे युद्ध में मार डाला था, तथा विजयसिंह के पिता अशनिवेग द्वारा यह भी मार डाला गया था । इसका संक्षिप्त नाम अन्ध्रक था। पपु० १.५६-५७, ६.३५२-३५९, ४२५-४६५
अन्नवान-अभयदान आदि चार दानों में वर्णित एक दान । इसी को
आहारदान भी कहते हैं । पपु० १४.७६ अन्नपान-निरोध-अहिंसाणुव्रत का पांचवां अतिचार-प्राणियों को भूखा
प्याराा रखना । हपु० ५८.१६५ दे० अहिंसाणुव्रत अन्नप्राशन-गर्भान्वय की श्रेपन क्रियाओं में दसवीं किया। इससे जन्म से
सात आठ मास बाद गर्भाधान आदि के समान पूजा-आदि कर शिशु को विधिपूर्वक अन्नाहार कराया जाता है। मपु० ३८.५५-६३, ७०-७६,९५, इस क्रिया के लिए "दिव्यामृतभागी भव" "विजयामृतभागी भव" और "अक्षीणामृतभागी भव" ये मंत्र व्यवहृत होते है। मपु० ४०.१४१-१४२, वृषभदेव ने अपने पुत्र भरत को इसी विधि
से प्रथम अन्नाहार कराया था । मपु० १५.१६४ दे० गर्भान्वय क्रिया अन्यत्वानुप्रेक्षा-बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) में एक भावना। इसमें
यह भावना को जाती है-न मैं देह हूँ, न मन हूँ और न इन तीनों का कारण हो । मैं शरीर से पृथक् हूँ, बाह्य वस्तुओं से परे हूँ, निश्चय से मैं अपने शरीर, कर्म और कर्मजनित सुख-दुःख आदि से भिन्न हूँ । कर्म विपाक से ही माता, पिता, बन्ध आदि से मेरे संबंध है । मैं पौद्गलिक कर्मजनित संकल्प-विकल्पों से मुक्त तथा द्रव्य और भाव, मन और वचन से सर्वथा भिन्न हूँ। राग, द्वेष आदि भाव मेरे विभाव हैं । मपु० ३८.१८३, पपु० १४.२३७-२३९, पापु० २५.
९३-९५, वीवच० ११.२-३, ४४-५३ दे० अनुप्रेक्षा अन्यरामारति-परस्त्री सेवन । यह हिंसा आदि पाँच पापों में चौथा
पाप है । मपु० २.२३ दे० पाप अन्वयवत्ति-चार दत्तियों में चौथी दत्ति । इसमें अन्वय (वंश) को प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को समस्त कुल परम्परा तथा धन के साथ अपना कुटुम्ब समर्पित किया जाता है । इसे सकलदत्ति भी कहते हैं । मपु० ३८.४० दे० दत्ति अन्वयिनिक-विवाह में जमाता को दिया जानेवाला दहेज । मपु०
अप-श्रावस्ती नगरी में उत्पन्न, कम्प और उसको भार्या अङ्गिका का पुत्र । धर्म की अनुमोदना करने से इसे यह पर्याय प्राप्त हुई थी। अविनयी होने से पिता ने इसे घर से निकाल दिया था। वन में इसने अचल नामक पुरुष के पैर में लगे काँटे को निकाल दिया था इसलिए उसने इसे अपने हाथ का कड़ा दिया था । अचल ने ही इसे 'अप' यह नाम दिया था । अचल की सहायता से ही राज्य प्राप्त करने के बाद अन्त में यह निर्ग्रन्थ-दीक्षा लेकर संयमपूर्वक मरा और देवेन्द्र हुआ । स्वर्ग से चयकर यह कृतान्तवक्त्र नाम का शत्रुघ्न का बलवान् सेनापति हुआ । पपु० ९१.२३-२८, ३९-४२, ४७ अपवर्शन-वैडर्यमणिमय नील-पर्वत का नवम कूट । हपु०५.९९, १०१
दे० नील-४ अपध्यान-(१) ध्यान का विपरीत रूप-बुद्धि का अपने आधीन न होता । यह विषयों में तृष्णा बढ़ानेवाली मन की दुष्प्रणिधान नाम की प्रवृत्ति से होता है। इसमें अशुभ भाव होते हैं। मपु० २१. ११, २५
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