Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
View full book text
________________
२२ जैपुराणको
(२) नक्षत्र । प्रन्द्रप्रभ तीर्थंकर का इसी नक्षत्र में जन्म हुआ था । पपु० २०.४४
अनुवादी -- षड, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद इन सात प्रकार के स्वरों के प्रयोग करने के चार प्रकारों में चौथा प्रकार । हपु० १९.१५३, १५४
अनुविन्द - राजा धृतराष्ट्र और उनकी रानी गान्धारी के सौ पुत्रों में
नवम पुत्र । पापु० ८.९९२-२०५ दे० धृतराष्ट्र । अनुवीर्थं - कृष्ण - जरासन्ध युद्ध में जरासन्ध द्वारा चक्रव्यूह की रचना किये जाने पर उसको भेदने के लिए वसुदेव ने जिन वीरों को नियुक्त किया था उनमें एक वीर । हपु० ५० ११२, १२३ - १२७ अनृत- पाँच पापों में दूसरा पाप - प्राणियों का अहितकर वचन । मपु० २.२३, हपु० ५८.१३० दे० पाप
अनेक - द्विप (हाथी) । तीर्थंकरों के गर्भ में आते ही उनकी जननी सोलह स्वप्न देखती है । उन सोलह स्वप्नों में ऐरावत हाथी प्रथम स्वप्न में ही दिखायी देता है इस स्वप्न का फल गर्भस्थ शिशु का अनेक जीवों का रक्षक, अपनी चाल से हाथी की चाल को तिरस्कृत करनेवाला और तीनों लोकों का एकाधिपति होना बताया गया है । हपु० ०२७.५-६, २७ अनेका- प्रोषघोपवास व्रत का एक अतिचार व्रत में चित्त की एकाग्रता नहीं रखना । हपु० ५८.१८१
अन्तकृत् – (१) कर्मो का क्षय करके मोक्ष के प्राप्तकर्ता केवली - मुनि । मुनियों का "अन्तकृत्सिद्ध ेभ्यो नमो नमः” इस पीठिका मन्त्र से नमन किया जाता है । मपु० ४०.२०, हपु० ६१.७
(२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६८ अन्तकृश्वशांग – द्वादशाङ्ग त का आठ भेद ह० २.९२-९५ इसमें तेईस लाख अट्ठाईस हजार पदों में प्रत्येक तीर्थंकर के समय में दस प्रकार के असह्य उपसर्गों को जीतकर मुक्ति को प्राप्त करने वाले दस अन्तकृत् केवलियों का वर्णन किया गया है । मपु० ३४.१४२, हपु० १०.३८-३९ दे० अंग
अन्तप - विन्ध्याचल के ऊपर स्थित एक जनपद । हपु० ११.७३-७४ अन्तर- एक पर्याय से छूटने और दूसरी पर्याय को प्राप्त करने के
अन्तराल का समय । मपु० ३.१३८-१३९, हपु० ४.३७० ३७१ अन्तरङ्गशत्रु — क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायें, पंचेन्द्रियों के
विषय, आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाएँ । मपु०३६.१२९-१३२ अन्तरद्वीप - कुमनुष्यों (कुभोगभूमि के मनुष्यों) की निवासभूमि । चक्रवर्ती
भरत का ऐसे छप्पन द्वीपों पर आधिपत्य था । मपु० ३७.६५ । विन्ध्याचल के बीच भी संध्याकार में एक ऐसा ही द्वीप था जिसमें सन्ध्याकार नाम का नगर था । यहाँ हिडम्ब वंश में उत्पन्न राजा सिंहघोष रहता था । इसकी पुत्री हृदय सुन्दरी के साथ भीम का विवाह हुआ था । हपु० ४५.११४- ११८
अन्तरपाण्ड्य - दक्षिण दिशा में स्थित देश । चक्रवर्ती भरत ने इस देश के राजा को दण्डरत्न द्वारा अपने आधीन किया था । मपु० २९.८०
Jain Education International
अनुवादी- अन्य कल्याणक
तत्व
अन्तरात्मा - आत्मा का दूसरा भेद । विवेकी, जिनसूत्र का वेत्ता, तत्व शुभ-अशुभ, देव-प्रदेव, सत्य-असत्य, दुष्पय मुक्तिपथ का ज्ञाता तथा इन्द्रिय-विषय-जनित सुख का निरभिलाषी और मुमुक्षु, कर्म और कर्मों के कार्यों से उत्पन्न मोह, इन्द्रिय और राग-द्वेष आदि से आत्मा को पृथक, निष्फल और योगिगम्य, जानने वाला जीव । ऐसा जीव सर्वार्थसिद्धि तक के सुखी को और जिनेन्द्र के वैभव को भोगता है । इसके उत्तम मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार हैं। चौथे गुणस्थानवर्ती जीव को जधन्य पाँचवें से ग्यारह तक सात गुणस्थानवर्ती जीव को मध्यम तथा बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव को उत्तमः अन्तरात्मा कहा गया है। वीवच० १६.७५-८२, ९५-९६, ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के अन्तर्वर्ती होने से यह जीव कहलाता है । मपु० २४१०७ दे० जीव ।
अन्तराय- -ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों में आठवाँ कर्म । यह इष्ट पदार्थों की प्राप्ति में विघ्नकारी होता है। इसके पाँच भेद होते हैंदानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर, जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त और मध्यमस्थिति विविध रूपा होती है । हपु० ३.९५ ९८, ५८.२१८, २८०-२८७, वीवच० १६.१५६-१६० दे० कर्म । अन्तरिक्ष (१)ग निमित्त का एक भेद अन्तरिक्ष में चन्द्र सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक ज्योतियाँ रहती हैं। इन ज्योतियों के उदय और अस्त से जय, पराजय, हानि, वृद्धि, शोक, जीवन, लाभ, अलाभ आदि का ज्ञान किया जाता है । मपु० ६२.१८२-१८३, हपु०
|
१०.११७
(२) कृष्ण द्वारा जरासन्ध पर छोड़ा गया एक अस्त्र । हपु० ५२.५१
-
असनहार — अंकुरण में सहायक सामग्री का अंश म० ३.१८०-१८१ अन्तभूमिचर भूमि मण्डल स्तम्भ के पास बैठने वाले सब ऋतुओं के फूलों की सुगन्धि से युक्त मालाओं तथा स्वर्णमय आभरणों से युक्त विद्याधर । पु० २६.११
अन्तर्वनी - गर्भवती स्त्री । मपु० १२.२१२, १५.१३१ अन्तविचारिणी - विद्याधरों को प्राप्त एक विद्या
अनेक शक्तियों से युक्त यह विद्या विशेषतः औषधिज्ञान में सहायक होती है । हपु० २२.६७-६९ अन्त्यकल्याणक - तीर्थंकरों का पाँचवाँ निर्वाण कल्याणक । इसमें चारों निकायों के देव परिवार सहित आकर तीर्थंकर की पूजा करते हैं । तत्पश्चात् प्रभु का शरीर पवित्र और निर्वाण का साधक है ऐसा जानकर वे तीर्थंकर की देह को बड़ी विभूति के साथ पालकी में विराजमान करते हैं तथा सुगन्धित द्रव्यसमूह से पूजकर अपने रत्नमुकुटधारी मस्तक से नमन करते हैं। इसके पश्चात् अग्नीन्द्रकुमार देव के मुकुट से उत्पन्न अग्नि से तीर्थंकर का शरीर दग्ध हो जाता है । इन्द्र आदि देव उस भस्म को अपने निर्वाण का साधक मानकर सर्वाङ्ग में लगाते हैं । वीवच० १९.२३० - २४५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org