Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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जैन पंडित परंपरा : एक परिदृश्य ३५ को जगाये रखने का काम रहा । इस बीच अनेक कवियों (सोमदेव ९०८.९७० ई०; पुष्यदंत, हस्तिमल्ल (११६१-८१ ई०), हरिश्चन्द्र, धनपाल, तेजपाल, रइधू (१५-१६ वों सदी), श्रीधर (११००-८३ ई०) आदि ने अपने काव्यात्मक उपाख्यानों द्वारा धर्मचक्र को जीवन्तता प्रदान की।
ऐस प्रतीत होता है कि १३-१५ वीं सदी में भट्टारक परम्परा के प्रभाव के कारण पंडित आशाधर के उत्तरवर्ती दो सौ पचास वर्षों में पंडित परम्परा नामरूपेण ही रही। फिर भी, यह विषय शोधनीय है । पर पिछले पांच सौ वर्षों में पंडितों की अनेक कोटियों ने दिगम्बर परम्परा की अनेक रूपों में सेवा की है। इसके पूर्ववर्ती वर्षों में लौकिक विधियों के समावेश से धर्म का अध्यात्म तत्व आवतप्राय हो गया था। पंडितों की प्रथम पंक्ति ने इस तत्व को पुनः प्रतिष्ठित कर पांच सौ वर्षों की जड़ता को दूर करने का प्रयास किया। इस बहादुर पंक्ति का दिगम्बर-श्वेताम्बर-दोनों ओर से साहित्यिक एवं सैद्धान्तिक विरोध हआ। इसके फलस्वरूप लगभग १६१८-२० में भटारक नरेन्द्रकीति के समय राजस्थान के सांगानेर में दिगम्बरों के दो पंथ-तेरापन्थ और बोसपन्थ-हो गये। उस समय प्रचलित पंथ बीसपंथ और सैद्धान्तिक पंथ तेरापन्थ कहलाया । वर्तमान पंडित वर्ग इन दोनों को पोषित करता है।
परम्परापोषी पंडितों के विवरण के अतिरिक्त जैन इतिहासज्ञों द्वारा पंडित परम्परा पर कोई विशेष कार्य नहीं किया गया है । इससे इस सम्बन्ध में पर्याप्त सूचनाओं का भी अभाव है । सतीशकुमार ने अपने व्यापक उद्देश्य के अनुरूप लेखक व वैज्ञानिकों की कोटि में अनेक पंडितों का विवरण दिया है । फिर भी, जैन विद्वानों से सम्बन्धित सूचनाओं की दृष्टि से शास्त्रि परिषद् का प्रकाशन अधिक उपयोगी है । इसमें अनेक अपूर्णतायें, है, पिछले एक युग में अनेक नूतनतायें भी जुड़ी है, फलतः उक्त संस्था को इसके परिवर्षित संस्करण की दिशा में सक्रिय रूप से विचार करना चाहिये । वस्तुतः ऐतिहासिक दृष्टि से, पंडित परम्परा को तीन युगों में वर्गीकृत किया जा सकता है; (i) स्वान्तःसुखाय सर्जना एवं उपदेशना युग (ii) प्रचार-प्रसार, अनुसंधान एवं सामाजिक प्रेरणा का युग और (iii) शिक्षा अनुष्ठान एवं साहित्य सर्जना का युग ।
सारणी १ से स्पष्ट है कि प्रथम युग (१५००-१८००) के विद्वानों में तीन व्यवसायी, चार राजसेवी तथा चार अनिर्दिष्ट व्यवसायी रहे हैं। कहा जाता है कि इनमें द्यानतरायजी की स्थिति सबसे कमजोर रही है । फिर भी, ये सभी धर्म के सिद्धान्तों का जीवन एवं समाजव्यापी महत्व समझते थें । अपनी इस विचारधारा का लाभ उन्होंने समाज को देने का प्रयत्न किया। उन्होंने भक्तिधारा और उसके साहित्य को विकसित किया, प्राचीन ग्रन्थों को जनभाषा में प्रस्तुत किया। सम्भवतः जयपुरवासी पं० दौलत राम (१६८२-१७७२) ने जैनों के व्यक्तिगत जीवन में त्रेपन क्रियाओं को प्रतिष्ठित किया। जो आज भी जैनों के आचार-विचार के अंग बनी हुई है। इस प्रकार भक्तिवाद, क्रियाकांड एवं तत्कालीन भाषा में जिनवाणी के प्रस्तुतोकरण के कार्य के लिये प्रथम युग को श्रेय दिया जाना चाहिये । इस युग में आगरा, जयपुर एवं बिहार पंडितों के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। यह भी स्पष्ट है कि इस युग में पंडितों की आजीविका समाजनिर्भर नहीं थी। वे स्वान्तःसुखाय एवं परोपकारहेतु ही धार्मिक चर्चायें एवं साहित्य सृजन करते थे। ऐसे लोगों की संख्या कम ही होती है । तीन सौ वर्षों में केवल ग्यारह महत्वपूर्ण नाम हमें मिले हैं।
द्वितीय युग के विद्वानों में प्रथम की अपेक्षा काफी विविधता पाई जाती है। इनमें आधे से अधिक मान्य पंडितों ने जैनधर्म का स्वयमेव अध्ययन किया । ये आजीविका हेतु समाज पर आश्रित भी नहीं रहे। इन्होंने धर्म और समाज में जागरूकता लाने की स्वान्तःसुखाय प्रवृत्ति को कार्यरूप दिया। इनका कार्य समाज में घामिक शिक्षा एवं सिद्धान्तों का प्रचार प्रमुख रहा है। वैरिस्टर चम्पतराय, जे० एल० जैनी और ब्र० शीतल प्रसाद जी तो विदेशों में भी धर्म-प्रचारार्थ गये, अंग्रेजी में जैनधर्म विषयक साहित्य-सृजन एवं अनुवाद कार्य किया। वर्णीजी और वरैयाजी बीसवीं सदी में जैन शिक्षा प्रसार के आदिपरुष माने जा सकते हैं। इस सदी के आठवें दशक का वरेण्य जैन विद्वत समाज इनके द्वारा स्थापित संस्थाओं की ही देन है। श्री प्रेमी जी और मुख्तार सा० ते अपनी अध्ययनशीलता से जैन-विद्याओं में अनुसन्धान तथा
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