Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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३४० पं० जगन्मोहनलाले शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड एच. जेकोबी ने सही कहा है, "यह स्पष्ट है कि समुदाय का सामान्य जन जैन संगठन में बौद्ध संगठन के समान बाहरी, हितैषी या संरक्षक के रूप में नहीं माना जाता था। उसकी स्थिति धार्मिक कर्तव्य और अधिकारों से पूर्णतः परिभाषित रही है। सामान्य जन एवं साधुओं के बीच का सम्बन्ध अत्यन्त प्रमावी था। यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि इस सदृढ सम्पर्क के कारण ही जैन साधुओं एवं गृहस्थों के आचार में समानता आई जिसमें केवल गुणात्मकता का ही अंतर रखा । इसीसे जन संघ के भीतर कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं हो पाये और यह बाहरी प्रभावों से दो हजार साल तक बचा रह सका। इसके विपर्यास में, बौद्धों में गृहस्थों के प्रति इतनी कठोरता नहीं थी और उन्होंने असाधारण विकास पथ का अनुसरण किया। इससे वह अपनी जन्मभूमि से ही लुप्त हो गया।" (ब) अपरिवर्तनीयता का संरक्षण
जैनों की अतिजीविता का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण उनकी अपरिवर्तनीयता के संरक्षण की वृत्ति भी रही है। इस कारण ही वे अनेक सदियों से अपनी मूलभूत संस्थाओं और सिद्धान्तों को दृढ़ता से पकड़े हुए हैं। जैनों के आधारभूत महत्वपूर्ण सिद्धान्त आज भी लगभग ज्यों के त्यों बने हुए हैं। यह संभव है कि गृहस्थ और साधुओं की जीवन
एवं व्यवहार से सम्बन्धित कुछ कम महत्वपूर्ण नियम आज उपेक्षणीय या अनुपयोगी हो गये हों, फिर भी इस बात में शंका नहीं है कि आज के जैन समुदाय का धार्मिक जीवन तत्वतः वैसा हो है जैसा आज से दो हजार वर्ष पूर्व था। अपने सिद्धान्तों के प्रति कठोर लगाव की यह प्रवृत्ति जैन स्थापत्यकला और मूर्तिकला में भी प्रतिबिम्बित होती है । जैन मूर्तियों के निर्माण की शैली वस्तुतः आज भी पूर्ववत् बनी हुई है। इसलिये परिवर्तन के प्रति निश्छल अस्वीकृति की वृत्ति जैनों के लिये सुदृढ़ सुरक्षा कवच रही है । (स) राज्याश्रय
भारत के विभिन्न भागों में प्राचीन और मध्यकाल में अनेक राजाओं ने जैनधर्म को संरक्षण प्रदान किया। इस संरक्षण ने निश्चितरूप से जनों की अतिजीविता में सहायता की है। गुजरात और कर्नाटक तो प्राचीन काल से जैनों के प्रमावशील क्षेत्र रहे हैं क्योंकि इन दोनों क्षेत्रों में अनेक शासक, मंत्री एवं सेनाध्यक्ष स्वयं जैन रहे हैं। जैन शासकों के अतिरिक्त, अनेक जैनेतर शासकों ने भी जैन धर्म के प्रति उदार दृष्टिकोण रखा । राजपूताना के इतिहास से पता चलता है कि अनेक राजाओं ने जैन सिद्धान्तों से प्रभावित होकर प्राणि-बध पर प्रतिबंध लगा दिया। अनेक राजाओं ने बरसात के चार महिनों के लिये तेलघानी और कुम्हार के चके चलाने पर प्रतिबंध लगा दिया। दक्षिण में प्राप्त अनेक शिलालेखों से पता चलता है कि अनेक जनेतर राजाओं ने जैनों के प्रति धार्मिक उदारता दिखाई और धर्म-पालन के लिये सविधाय दी। इन शिलालेखों में विजयनगर के राजा बुक्क राय-प्रथम का १३६८ ई० का शिलालेख अत्यंत महत्वपूर्ण है । जब विविध क्षेत्रों के जैनों ने राजा से यह शिकायत की कि उन्हे वैष्णवों के अत्याचारों से सुरक्षा प्रदान की जावे, तब राजा ने सभी सम्प्रदायों के नेताओं को बुलाकर कहा कि मेरे लिये सभी संप्रदाय समान हैं। सभी को अपने धार्मिक आचार पालन की स्वतन्त्रता है। (द) साधु-संस्था की प्रवृत्तियां
अनेक प्रसिद्ध जैन सन्तों के विविध प्रकार के क्रियाकलापों ने भी जैनों की अतिजीविता में योगदान किया है। इन क्रियाकलापों ने सामान्य जन पर जैन संतों की विशेषताओं की छाप डाली। ये सन्त ही जैन धर्म के समग्र भारत में फैलने के लिये उत्तरदायी हैं। श्रीलंका के इतिहास से पता चलता है कि जैन धर्म वहाँ भी फैला । जहाँ तक दक्षिण भारत का प्रश्न है, यह कहा जा सकता है कि प्राचीन काल में पूरे दक्षिण भारत में जैन साधु-संघ फैले हुए थे । वे अपने देशमाषा में निर्मित साहित्य के माध्यम से धीरे-धीरे जैन धर्म के नैतिक सिद्धान्तों का दृढ़तापूर्वक
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