Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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कातन्त्र व्याकरण ४४५
सदी निश्चित है। फलतः शर्ववर्मन पतंजलि का पर्याप्त उत्तरवर्ती है। फिर भी युधिष्ठिर मीमांसक इसे सातवाहन से भी पूर्ववर्ती मानते हैं।
इस ग्रन्थ के कर्ता जैन थे या अजैन, इस पर विद्वानों का मत स्पष्ट नहीं है। एक ओर सोमदेव शर्ववर्मन् को अजैन मानते है, वही भावसेन विद्य (१२-१३ सदी) और हेमचंद्र उन्हें जैन मानते है। इसके 'सिद्धो वर्णसमाम्नायः' नामक प्रथम सूत्र में सिद्ध' शब्द का होना इसे जैनकर्तृक प्रमाणित करता है। इसके सभी टीकाकार प्रायः जैन ही हुए हैं। इसका जैनों में ही प्रचार भी अधिक रहा है। इस व्याकरण के अन्तःपरीक्षण से भी इसके जैन-कर्तक होने का आभास मिलता है। कातन्त्र व्याकरण को टोकायें और वृत्तियां
ग्रन्थकर्ता के अनुसार, यह ग्रन्थ अल्पमति, आलसी, लोकयात्री, वणिक् आदि सामान्यजनों के 'शीघ्रबोध' के लिये लिखा गया है । इसीलिये यह इतना लघु, सरल एवं सहज कण्ठस्थनीय है । इसकी लोकप्रियता के कारण ही यह बौद्धों के लिये उपयोगी बना। इसका प्रचार भारत के बाहर तिब्बत में भी हुआ। पर वर्तमान में इसका प्रचलन मुख्यतः बंगाल में है। इसकी लोकप्रियता का एक प्रमाण यह भी है कि इस पर अनेकों टीकायें एवं वृत्तियाँ लिखी गई । इनका कुछ विवरण सारणी १ में है।
सारणी १
कातंत्र व्याकरण की टोकायें वृत्तियां
समय, वि०
१२०८ ११५०-१२५० १३२८
टीकाकार/वृत्तिकार
दुर्गसिंह २. विजयानंद (विद्यानंद)
भावसेन विद्य
जिनप्रबोधसूरि ५. संग्रामसिंह ६. जिनप्रभ सूरि
प्रद्युम्न सूरि, आचार्य ८. मेस्तुंग सूरि ९. वर्धमान १०. मुनि चरित्र सिंह ११. हर्षचन्द्र १२. धर्मघोष सूरि १३. आचर्य राजशेखर सूरि १४. सोमकीति १५. पृथ्वीचंद्र सूरि
१३५२ १३६९ १४४८ १४४८
टीका वृत्ति नाम कातंत्र-वृत्ति कातंत्रोत्तर व्याकरण कातंत्र रूपमाला दुर्गपद प्रबोध बालशिक्षा कातंत्र विभ्रम टीका दौर्गसिंही वृत्ति बालबोध व्याकरण कातंत्र विस्तर कातंत्र विभ्रम टोका कातंत्र-दीपक कातंत्र निबंध वृत्तित्रय निबंध कातंत्रवृत्तिपर पंजिका कातंत्र रूपमाला लघुवृत्ति कातंत्र रूपमाला-टीका कातंत्र रूपमाला लघुवृत्ति कातंत्र व्याकरणवृत्ति बाल बोध
१३००-१४००
१६. सकलकीति-२ १७. आचार्य रविवर्मा १८. पन्नालाल वाकलीवाल
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