Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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कातन्त्र व्याकरण
डा० भगीरथ प्रसाद त्रिपाठी 'वागीश' शास्त्री संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
व्याकरण की परंपरा और कातन्त्र व्याकरण का स्थान
भारत में वेदार्थों की व्याख्या के लिये चिरकाल से प्रातिशाख्य, निरुक्त और व्याकरण के रूप में शब्दानुशासन की वृहत् परम्परा पाई जाती है । प्रातिशाख्यों में पद- विभण आदि के रूप में वर्णित प्रक्रिया वेदों के शब्दानुशासन की अंशतः हो व्याख्या करती है । यास्कीय निरुक्त में बताया गया है कि निरुक्त के लिये व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है । इसलिये व्याकरण-रूप शब्दानुशासन निरुक्त से प्राचीन है । यद्यपि प्राचीन भारतीय वाङ्मय व्याकरणों के नाम पाये जाते हैं, फिर भी प्रकरणाधारित होने से उस परम्परा के अनेक व्याकरण लुप्त हो गये । लेकिन इनमें माहेशी परम्परा आज भी जीवित है । कुछ लोग यह भी मानते हैं कि माहेन्द्री परम्परा भी आंशिक रूप से जीवित है । शब्दानुशासन की यह परम्परा दो प्रकार की है मातृका पाठ-रूप (विस्तृत) और प्रत्याहार रूप संक्षिप्त । आजकल विद्यमान सभी व्याकरण ग्रन्थ प्रायः प्रत्याहर-रूप द्वितीय परम्परा का अनुसरण करते हैं ।
तैत्तिरीय संहिता अनुसार वाक्-व्याख्यान में लिये देवों ने इन्दु से प्रार्थना की। इस आधार पर माहेन्द्री परम्परा महेन्द्र के गुरु वृहस्पति ने प्रचलित की | उसका विस्तार देखकर भगवान् पतंजलि ने अपने महाभाष्य में बताया है कि वृहस्पति ने इन्द्र को यह व्याकरण एक हजार वर्ष तक पढ़ाया पर समाप्त नहीं हो पाया ।
आठवीं के हरिभद्रसूरि ने बताया कि जैनेन्द्र व्याकरण (देवनंदि पूज्यपाद ) ही ऐन्द्र-व्याकरण है । अठारवीं सदी में उत्पन्न राजर्षि ने अपने 'भगवत् वादिनी' नामक ग्रन्थ में बताया है कि ऐन्द्र व्याकरण जै० व्या० ) भगवान् महावीर-प्रणीत है और इसके समर्थन में अनेक तर्क दिये हैं । इस ग्रन्थ में जैनेन्द्र व्याकरण का सूत्रपाठ ही दद्यबद्ध है । पूज्यपाद ने पाणिनि के व्याकरण पर 'शब्दावतार न्यास' नामक टीका है । पाणिनि के पूर्ववर्ती व्याकरणों के अनेक सिद्धन्त भी जैनेन्द्र व्याकरण में पाये जाते हैं। लेकिन इससे 'जैनेन्द्र व्याकरण' को ऐन्द्र व्याकरण नहीं कहा जा सकता । जैनेन्द्र शब्द में इन्द्र-शब्द होने से ऐसा आभास हुआ है । कुछ विद्वानों की मान्यता है कि जैनेन्द्र व्याकरण देवनंदि आचार्य ने बनाया है जिनका दूसरा नाम जिनेन्द्र बुद्धि भी है ।
महेन्द्र व्याकरण विस्तृत है और समय साध्य है । इसलिये महामुनि पाणिनि ने महेश परम्परा में प्रत्याहाररूप प्रथम संक्षिप्त शब्दानुशासन बनाया । इसलिये इसमें कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिये कि महेन्द्र परम्परा के अन्य व्याकरण पाणिनीय व्याकरण से विस्तृत हैं। पाणिनि व्याकरण में भी प्राचीन व्याकरणों के अनेक सूत्र पाये जाते हैं । उसने इसे अनेक आचार्यों के नाम सादर दिये हैं जिनके मत उसने ग्रहण किये हैं । प्रत्याहर-सूत्रों के अतिरिक्त पाणिनि की अष्टाध्यायी में बहुतेरे सूत्र प्राचीन व्याकरणों से लिये गये हैं । यह तथ्य सूत्रों के तुलनात्मक अध्ययन से ज्ञात होता है । अवैदिक हैं, फिर भी वे अंशतः महेन्द्र परम्परा का अनुकरण करते हैं। इसके महत्व को स्वीकार करते हैं । इसीलिये अन्तरवर्ती वैयाकरण पाणिनि के प्रत्यारसंवरण नहीं कर पाये ।
जैन और बौद्ध-व्याकरण बावजूद भी वे पाणिनीय व्याकरण के सूत्र क्रम को समाविष्ट करने का लोभ
कातन्त्र का नामकरण
वर्तमान में उपलब्ध कातन्त्र व्याकरण पाणिनि का उत्तरकालीन शब्दानुशासन है । यह विस्तृत महेन्द्र परम्परा का है । इसमें महेन्द्र परम्परा की संक्षिप्त प्रत्याहार - प्रक्रिया नहीं अपनाई गई है । कातंत्र व्याकरण के नाम के विषय में
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