Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur

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Page 598
________________ ६] कुवलयमालाकहा के आधार पर गोल्लादेश व गोल्लाचार्य की पहिचान ४४९ १२. अन्तर्वेद : गंगा-यमुना के बीच के दोआब का अधिकतर भाग । १३. मध्यदेश : इसमें वर्तमान मध्यप्रदेश मानना भ्रम ही होगा। इसकी पश्चिमी सीमा सरस्वती नदी इसकी दक्षिणी सीमा गंगा नदी तक अत्यन्त प्राचीन काल में यह आर्यों के ( जो सूख चुकी है) व पूर्वी सीमा प्रयाग मानी गई है । अन्तर्वेद को अलग मानने से मानना चाहिये । यह वही क्षेत्र है जहाँ आजकल खड़ी बोली बोली जाती है । निवास क्षेत्र के मध्य में था, इसीलिये मध्यदेश कहलाया । १४. कीर : हिमालय के क्षेत्र में बसने वालों की (किरात जति की) भाषा । यह सम्भवतः वर्तमान नेपाली नहीं, परन्तु प्राचीनतर नेवारी आदि हैं। इसे अनार्य ( अर्थात् इंडो-यूरोपियन नहीं) माना गया है । इस सूची में दक्षिण की तमिल, मलयालम व पूर्व को बंगाली का उल्लेख नहीं है । लेखक के उत्तर-पश्चिम भाग में रहने के कारण उसे सम्भवतः इन दूरस्थ देशों की जानकारी नहीं रही होगी । कुवलयमाला कहा में खस, पारस (फरसी क्षेत्र) व बबंर (अज्ञात) का उल्लेख भी है । भारत में काफी बड़ा प्रदेश वनाच्छादित था, जहाँ गोंड आदि जातियों का निवास था । दक्षिणी मध्यप्रदेश, विदर्भ व उड़ीसा में आज भी बड़ी संख्या में इनका निवास है । यहाँ न तो महत्त्वपूर्ण स्थान थे, न अधिक आवागमन था । इसी कारण इस क्षेत्र को उपरोक्त देश - भाषाओं में शामिल नहीं किया गया । उपरोक्त क्षेत्रों के निकाल देने के बाद भारत में ब्रज व बुन्देलखण्डी बोली जाती है । दोनों पश्चिमो हिन्दी गोल्लादेश की स्थिति यही होना चाहिये । के श्रवणबेलगोला के लेख से निष्कर्ष श्रवणबेलगोला में कुछ बारहवीं शती के लेख हैं, इनमें किसी गोल्लाचार्य का उल्लेख है । गोल्लादेश की स्थिति के निर्धारण में व गोल्लादेश के इतिहास के अध्ययन के लिये यह महत्त्वपूर्ण हैं । महानवमी मंडप में यादव वंशी नारसिंह (प्रथम) के मंत्री हुन्न द्वारा महामण्डलाचार्य देवकीर्ति पण्डित के स्वर्गवास पर निषद्यानिर्माण किये जाने का उल्लेख है । शक् १०८५ ( ई० ११६३) के इस लेख में देवकीर्ति की गुरु-परम्परा का निर्देश है । गोल्लाचार्य के बारे में कहा गया है कि गोल्लाचार्य गोल्लदेश के राजा थे जिन्होंने किसी कारण से दीक्षा ले ली थी । नाम नहीं है । सिर्फ इतना कहा गया हैं कि ये अकलंक की परम्परा में नन्दिगण के देशोगण में परम्परा (१) के अनुसार है यहाँ इनके गुरु का हुए थे। इनकी शिष्य Jain Education International (१) ११७३ ई० में शिष्यपरम्परा गोल्लाचार्य अद्धिक पद्मनन्दि (कौमारदेव ) एक ही महत्त्वपूर्ण भूखण्ड बचता है । यह वह भाग है जहाँ अन्तर्गत हैं व आपस में काफी समान हैं । अतः प्राचीन कुलभूषण कुलचन्द्रदेव माघनन्दि मुनि ( कोलापुरीय ) गण्डविमुक्तदेव देवकीति । (२) १११५ में शिष्यपरम्परा गोलाचार्य त्रकाल्ययोगी अभयनन्दि एकट्टे वसति के पश्चिम में एक मंडन के स्तम्भ में महाप्रधान दण्डनायक गंगराज द्वारा मेघचन्द्र त्रैविद्य के निधन पर शक् १०३७ (ई० १११५) में विद्या के निर्माण का उल्लेख है। इसमें भी गोल्लाचार्य के गोल्लादेश के शासक होने For Private & Personal Use Only सकलचन्द्र मेघचन्द्र त्रैविध www.jainelibrary.org

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