Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur

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Page 557
________________ ४०८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि जहाँ स्थानांग में प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययन होने का उल्लेख है, वहाँ समवायांग में इसके ४५ उद्देशनकाल और नन्दी में ४५ अध्ययन होने का उल्लेख है-यह आकस्मिक नहीं है। यह उल्लेख प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित के किसो साम्य का संकेतक है । वर्तमान प्रश्नव्याकरण में दस अध्ययन होना भी सप्रयोजन है-स्थानांग के पूर्व विवरण से संगति बैठाने के लिए ही ऐसा किया गया होगा। दस और पैंतालिस के इस विवाद को सुलझाने के दो ही विकल्प है-प्रथम सम्भावना यह हो सकती है कि प्राच अध्याय रहे हों और उसके ऋषिभाषित वाले अध्याय के ४५ उद्देशक रहे हों अथवा मूल प्रश्नव्याकरण में वर्तमान ऋषिभासित के ४५ अध्याय ही हो क्योंकि इनमें भी ऋषिभाषित के साथ महावीरभाषित और आचार्यभाषित का समावेश तो हो ही जाता है। यह भी सम्भव है कि वर्तमान ऋषिभाषित के ४५ अध्यायों में से कुछ अध्याय ऋषिभाषित के अन्तर्गत और कुछ आचार्यभाषित एवं कुछ महावीरभाषित के अन्तर्गत उद्देशकों के रूप में वर्गीकृत हुए हों। महत्वपूर्ण यह है कि समवायांग में प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन न कहकर ४५ उद्देशनकाल कहा गया है, किन्तु प्रश्नव्याकरण से अलग करने के पश्चात् उन्हें एक ही ग्रन्थ के अन्तर्गत ४५ अध्यायों के रूप में रख दिया गया हो। एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि समवायांग में ऋषिभाषित के ४४ अध्ययन कहे गये हैं जबकि वर्तमान ऋषिभाषित में ४५ अध्ययन हैं । क्या वर्धमान नामक अध्ययन पहले इसमें सम्मिलित नहीं था। इसे महावीरभाषित में परिगणित किया गया था या अन्य कोई कारण था, हम नहीं कह सकते। यह भी सम्भव है कि उत्कटवादी अध्याय में किसी ऋषि का उल्लेख नहीं है। साथ हो, यह अाय चार्वाक का प्रतिपादन करता है। अतः इसे ऋषिभाषित में स्वीकार नहीं किया हो । समवायांग और नन्दीसूत्र के मूलपाठों में एक महत्वपूर्ण अन्तर है । नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन हैं-ऐसा स्पष्ट पाठ है। जबकि समवायांग में ४५ अध्ययन-ऐसा पाठ न होकर ४५ उद्देशन काल है, मात्र यही पाठ है । हो सकता है कि समवायांग के रचनाकल तक वे उद्देशक रहे हों, किन्तु आगे चलकर वे अध्ययन कहे जाने लगे हों । यदि समवायांग के कालतक ४५ अध्ययनों की अवधारणा होती, तो समवायांग उसका उल्लेख अवश्य करता, क्योंकि समवायांग में अन्य अंग-आगमों की चर्चा के प्रसङ्ग में अध्ययनों का स्पष्ट उल्लेख है । इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या निमित्तशास्त्र एवं चमत्कारिक विद्याओं से मुक्त कोई प्रश्नव्याकरण बना भी था या यह सब कल्पना उड़ाते हैं ? यह सत्य है कि प्रश्नव्याकरण की पद संख्या का समवायांग, नन्दी, नन्दिचूर्णी और धवला में जो उल्लेख है, वह काल्पनिक है । यद्यपि समवायांग और नन्दी प्रश्नव्याकरण के पदों की निश्चित संख्या नहीं देते हैं-मात्र संख्यात शत-सहस्र-ऐसा उल्लेख करते हैं, किन्तु नन्दिचूर्णी एवं समवायांगवति'3 में उसके पदों की संख्या ९२१६००० और धवला" में ९३१६००० में बतायो गयी है, जो मझे तो काल्पनिक ही अधिक लगती है। मेरी अवधारणा यह है कि स्थानांग, समवायांग, नन्दी, तत्वार्थ राजवातिक, धवला एवं जयधवला में प्रश्नव्याकरण को विषयवस्तु का जिस रूप में उल्लेख है, वह पूर्णतः काल्पनिक चाहे न हो किन्तु उसमें सत्यांश कम और कल्पना का पट अधिक है। यद्यपि निमित्तशास्त्र के विषय को लेकर कोई प्रश्नव्याकरण अवश्य बना होगा, फिर भी उसमें समवायांग और धवला में वर्णित समग्र विषयवस्तु एवं चामत्कारिक विधाएँ रही होंगो, यह कहना कठिन है । इसी सन्दर्भ में समवायांग के मूलपाठ 'अद्दागंगुट्ठाबाहुअसिमणि खोमआइच्च भासियाणं'१५ के अर्थ के सम्बन्ध में भी यहाँ हमें पुनर्विचार करना होगा । कहीं उद्दांग, अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, खोम, (क्षोभ) और आदित्य व्यक्ति या ऋषि तो नहीं है क्योंकि इनके द्वारा भाषित कहने का क्या अर्थ है ? ऋषिभाषित में इनके उल्लेख है। आदित्य भी कोई ऋषि हो सकते है। केवल अंगुष्ठ, असि और मणि-ये तीन नाम अवश्य ऐसे हैं, जिनके व्यक्ति होने की सम्भावना धूमिल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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