Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur

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Page 558
________________ प्राचीन प्रश्नव्याकरण : वर्तमान ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन ४०९ क्या प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु सुरक्षित है ? यहाँ यह चर्चा भी महत्वपूर्ण है कि क्या प्रश्नव्याकरण के प्रथम और द्वितीय संस्करणों की विषयवस्तु पूर्णत: नष्ट हो गई है या वह आज भी पूर्णतः या अंशतः सुरक्षित है। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्रथम संस्करण में ऋषिआचार्यभाषित और महावीरभाषित के नाम से जो सामग्री थी, वह आज भी ऋषिभाषित, ज्ञाताधर्मकथा, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में बहुत कुछ सुरक्षित है । ऐसा लगता है कि ईस्वी सन् के पूर्व हो उस सामग्री को वहाँ से अलगकर इसिभासियाई के नाम से स्वतन्त्रग्रन्थ के रूप में सुरक्षित कर लिया गया था। जैन परम्परा में ऐसे प्रयास अनेक बार हए हैं जब चूला या चूलिका के रूप में ग्रन्थों में नवीन सामग्री जोड़ो जाती रही अथवा किसी ग्रन्थ की सामग्री को निकालकर उससे एक नया ग्रन्थ बना दिया। उदाहरण के रूप में, किसी समय निशीथ को आचारांग की चूला के रूप में जोड़ा गया, और कालान्तर में उसे वहाँ से अलग कर निशीथ नामक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया। इसी प्रकार, आयारदशा (दशाश्रतस्कन्ध) के आठवें अध्याय (पर्यषणकल्प) की सामग्री से कल्पसूत्र नामक एक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया । अतः यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि पहले प्रश्नव्याकरण में इसिभासियाई के अध्याय जुड़ते रहे हों और फिर अध्ययनों की सामग्री को वहाँ से अलग कर इसिभासियाई नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ अस्तित्व में आया हो । मेरा यह कथन निराधार भी नहीं है। प्रथम तो, दोनों नामों का साम्य तो है ही। साथ ही, समवायांग में यह भी स्पष्ट उल्लेख है कि प्रश्नव्याकरण में स्वसमय और परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येकबुद्धों के कथन है। इसिभासियाई के सम्बन्ध में यह स्पष्ट मान्यता है कि उसमें प्रत्येक बुद्धों के वचन हैं । मात्र यही नहीं, समवायांग स्वसमय एवं परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येकबुद्ध का उल्लेख कर इसकी पुष्टि भी कर देता है कि वे प्रत्येकबुद्ध मात्र जैन परम्पराओं के नहीं हैं, अपितु अन्य परम्पराओं के भी हैं । इसिभासियाई में मंखलिगोसाल, देवनारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, उद्दालक आदि से सम्बन्धित अध्याय भी इसी तथ्य को सूचित करते है । मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण का प्राचीनतम अधिकांश भाग आज भी इसिभासियाइं में तथा कुछ भाग सूत्रकृतांग, ज्ञाताधर्मकथा और उत्तराध्ययन के कुछ अध्यायों के रूप में सुरक्षित है । प्रश्नव्याकरण का इसिभासियाई वाला अंश वर्तमान इसिभासियाई (ऋषिभाषित) में महावीरभाषियाई तथा आयरियाभासियाई का कुछ अंश उत्तराध्ययन के अध्ययनों में सुरक्षित है । ऋषिभाषित के तेत्तलिपुत्र नामक अध्याय की विषयसामग्री ज्ञाताधर्मकथा के तेत्तलिपुत्र नामक अध्याय में आज भी उपलब्ध है। उत्तराध्ययन के अनेक अध्याय प्रश्नव्याकरण के अंग थे इसकी पुष्टि अनेक आधारों से की जा सकती है। सर्वप्रथम, उत्तराध्ययन नाम ही इस तथ्य को सूचित करता है कि यह किसी ग्रन्थ के उत्तर-अध्ययनों से बना हुआ ग्रन्थ है। इसका तात्पर्य है कि इसकी विषय सामग्री पूर्व में किसी ग्रन्थ का उत्तरवर्ती अंश रही होगी। इसी तथ्य की पुष्टि का दूसरा किन्तु सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण यह है कि उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा ४ में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख उत्तराध्ययन का कुछ भाग अंग साहित्य से लिया गया है। उत्तराध्ययन निर्यक्ति की इस गाथा का तात्पर्य यह है कि "बन्धन और मुक्ति से सम्बन्धित जिनभाषित और प्रत्येक कुछ सम्वादरूप इसके कुछ अध्ययन अंग ग्रन्थों से नियुक्तिकार का यह कथन तीन मुख्य बातों पर प्रकाश डालता है। प्रथम तो यह कि उत्तराध्ययन के जो ३६ अध्ययन हैं, उनमें कुछ जिनभाषित (महावीरभाषित) और कुछ प्रत्येक बुद्धों के सम्वाद रूप है तथा अंग साहित्य से लिये गये हैं । अब यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि वह अंग ग्रन्थ कौन सा था, जिससे उत्तराध्ययन के ये भाग लिये गये ? कुछ आचार्यों ने दृष्टिवाद से इसके परिषह आदि अध्यायों को लिये जाने की कल्पना की है किन्तु मेरो दृष्टि में इसका के आधार नहीं है । इसकी सामग्री उमी ग्रन्थ से ली जा सकती है जिसमें महावीरभाषित और प्रत्येकबुद्धिभाषित विषयवस्तु हो । इस प्रकार विषयवस्तु प्रश्नव्याकरण की ही थी। अतः उससे ही इन्हें लिया गया होगा। यह बा स्वीकार की जा सकती है कि चाहे उत्तराध्ययन के समस्त अध्ययन तो नहीं, किन्तु कुछ अध्ययन तो अवश्य ही महावीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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